पदार्थान्वयभाषाः - (यस्य, ते) जिस तुम्हारे (पीत्वा) आनन्द के पान करने से (वृषभः) कर्मों की वृष्टि करनेवाला कर्मयोगी (वृषायते) वर्षतीति वृषः, वृषु सिञ्चने, इस धातु से सदुपदेश द्वारा सिञ्चन करनेवाले पुरुष के लिये यहाँ ‘वृष’ शब्द आया है, जिसके अर्थ सदुपदेश के हैं, (अस्य, पीता) इस आनन्द के पीने से (सुप्रकेतः) शोभन प्रज्ञावाला होकर (इषः, अभ्यक्रमीत्) शुत्रओं को अतिक्रमण कर जाता है, (एतशः) अश्व (न) जैसे (वाजम्) संग्राम का (अच्छ) अतिक्रमण करता है, इसी प्रकार कर्मयोगी पुरुष सब बलों का अतिक्रमण करता और (स्वर्विदः) विज्ञानी बनता है ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र का आशय यह है कि वेद के सदुपदेश द्वारा कर्मयोगी शोभन प्रज्ञावाला हो जाता है। यहाँ अश्व के दृष्टान्त से कर्मयोगी के बल और पराक्रम का वर्णन किया है कि जिस प्रकार अश्व संग्राम में विजय प्राप्त करता है, इसी प्रकार कर्मयोगी विज्ञान द्वारा सब शत्रुओं का पराजय करनेवाला होता है ॥२॥