म॒रुत्व॑न्तमृजी॒षिण॒मोज॑स्वन्तं विर॒प्शिन॑म् । इन्द्रं॑ गी॒र्भिर्ह॑वामहे ॥
अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
marutvantam ṛjīṣiṇam ojasvantaṁ virapśinam | indraṁ gīrbhir havāmahe ||
पद पाठ
म॒रुत्व॑न्तम् । ऋजी॒षिण॑म् । ओज॑स्वन्तम् । वि॒ऽर॒प्शिन॑म् । इन्द्र॑म् । गीः॒ऽभिः । ह॒वा॒म॒हे॒ ॥ ८.७६.५
ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:76» मन्त्र:5
| अष्टक:6» अध्याय:5» वर्ग:27» मन्त्र:5
| मण्डल:8» अनुवाक:8» मन्त्र:5
बार पढ़ा गया
शिव शंकर शर्मा
उसका उपकार दिखलाते हैं।
पदार्थान्वयभाषाः - (अयम्+इन्द्रः) यह इन्द्रवाच्य जगदीश जिस कारण (मरुत्सखा) प्राणों का सखा है, अतः (शतपर्वणा) बहुविध पर्वविशिष्ट (वज्रेण) वज्र से (वृत्रस्य) प्राणों के अवरोधक अज्ञान के (शिरः) शिर को (वि+अभिनत्) काट लेता है ॥२॥
भावार्थभाषाः - वेदों में आलङ्कारिक वर्णन बहुत है। यहाँ जीव का सखा ईश्वर है। उसमें मनुष्यसखावत् आरोप करके वर्णन है। जैसे इस लोक में सखा हितकारी होता और अपने मित्र का विघ्ननाश के लिये चेष्टा करता है, तद्वत् मानो वह जगदीश भी करता है। इस हेतु वज्र आदि शब्द ईश्वर-पक्ष में अन्य अर्थ का द्योतक है। अर्थात् उसके जो न्याय और नियम हैं, वे ही शतपर्व वज्र हैं। भाव इसका यह है कि जो निष्कपट हो उसकी शरण में जाता है, वह सुखी होता है ॥२॥
बार पढ़ा गया
शिव शंकर शर्मा
तस्योपकारं दर्शयति।
पदार्थान्वयभाषाः - अयमिन्द्रो=जगदीशः। यतो मरुत्सखा=प्राणानां सखास्ति। अतस्तेषाम्। वृत्रस्य=आवरकस्य अज्ञानस्य। शिरः। व्यभिनत्=विभिनत्ति। केन। शतपर्वणा वज्रेण ॥२॥