पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! (सखा) जो जगत् का हितेच्छु (पर्वतः) दण्डधारी न्यायी राजा है, वह उस पुरुष को (स्वः) समस्त सुखों से (अव+दुधुवीत) दूर फेंक दे। केवल उसको दूर ही न करे, किन्तु (दस्युम्) उस दुष्ट मनुष्यविनाशक को (सुघ्नाय) मृत्यु के मुख में (पर्वतः) न्यायी राजा फेंक दे, जो (अन्यव्रतम्) परमात्मा को छोड़ किसी नर देवता की उपासना पूजादि करता हो, (अमानुषम्) मनुष्य से भिन्न राक्षसादिवत् जिसकी चेष्टा हो, (अयज्वानम्) जो शुभकर्म यज्ञादिकों से हरण कर्ता हो, (अदेवयुम्) जिसका स्वभाव महादुष्ट और जगद्धानिकारक हो, ऐसे समाजहानिकारी दुष्टों को राजा सदा दण्ड दिया करे ॥११॥
भावार्थभाषाः - लोगों को उचित है कि वे केवल ईश्वर की उपासना करें। समाजों में, देशों में या ग्रामों में राक्षसी काम न करें। स्त्रीलम्पटता, बालहत्यादि पातक में प्रवृत्त न हों। राजा अपने प्रबन्ध से समाज को सुधारा करे ॥११॥