न॒हि ष्म॒ यद्ध॑ वः पु॒रा स्तोमे॑भिर्वृक्तबर्हिषः । शर्धाँ॑ ऋ॒तस्य॒ जिन्व॑थ ॥
                                    अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
                  
                
                nahi ṣma yad dha vaḥ purā stomebhir vṛktabarhiṣaḥ | śardhām̐ ṛtasya jinvatha ||
                  पद पाठ 
                  
                                न॒हि । स्म॒ । यत् । ह॒ । वः॒ । पु॒रा । स्तोमे॑भिः । वृ॒क्त॒ऽब॒र्हि॒षः॒ । शर्धा॑न् । ऋ॒तस्य॑ । जिन्व॑थ ॥ ८.७.२१
                  ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:7» मन्त्र:21 
                  | अष्टक:5» अध्याय:8» वर्ग:22» मन्त्र:1 
                  | मण्डल:8» अनुवाक:2» मन्त्र:21
                
              
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                    शिव शंकर शर्मा
युवा ही धर्म करे।
                   पदार्थान्वयभाषाः -  (वृक्तबर्हिषः) हे यज्ञ में नियुक्त प्राणो ! (पुरा) पूर्वकाल में (वः) आपके (यद्+ह) जो बल थे, उन (ऋतस्य) सत्य के (शर्धान्) बलों को (स्तोमैः) स्तुति द्वारा (नहि+स्म+जिन्वथ) इस समय आप पुष्ट नहीं करते हैं ॥२१॥              
              
              
                            
                  भावार्थभाषाः -  आशय यह है कि मनुष्य का प्राणबल सदा समान नहीं रहता, अतः बलयुक्त युवावस्था में ही धर्मकार्य्य करे, वृद्धावस्था के लिये धर्म को न रख देवे। अनेक उपायों से भी वार्धक्य मिट नहीं सकता ॥२१॥               
              
              
                            
              
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                    आर्यमुनि
                   पदार्थान्वयभाषाः -  (वृक्तबर्हिषः, वः) पृथक् दिया गया है आसन जिनको, ऐसे आप (स्तोमेभिः) मेरे स्तोत्रों से प्रार्थित होकर (यत्, ह) जो (ऋतस्य) दूसरों के यज्ञों के (शर्धान्) बलों को (जिन्वथ) बढ़ावें (नहि, स्म) ऐसा नहीं सम्भावित है ॥२१॥              
              
              
                            
                  भावार्थभाषाः -  हे असाधारण उच्च आसनवाले विद्वानो ! आप हमारे यज्ञों में सम्मिलित होकर शोभा को बढ़ावें और हम लोगों को अपने उपदेशों द्वारा शुभ ज्ञान प्रदान करें ॥२१॥              
              
              
                            
              
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                    शिव शंकर शर्मा
युवैव सन् धर्मं कुर्यात्।
                   पदार्थान्वयभाषाः -  हे वृक्तबर्हिषः=यज्ञे नियुक्ता मरुतः। पुरा+वः=युष्माकम्। यत्+ह। शर्धा आसन्। तान्। ऋतस्य=सत्यस्य। शर्धान्=बलानि। नहि ष्म स्तोमैः। जिन्वथ=प्रीणयथ ॥२१॥              
              
              
              
              
                            
              
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                    आर्यमुनि
                   पदार्थान्वयभाषाः -  (वृक्तबर्हिषः, वः) दत्तासना यूयम् (स्तोमेभिः) स्तोत्रैः प्रार्थिताः (यत्, ह) यतो हि (ऋतस्य) अन्यदीययज्ञस्य (शर्धान्) बलानि (जिन्वथ) वर्धयेयुः (नहि, स्म) एतन्नहि सम्भवति ॥२१॥              
              
              
              
              
                            
              
            
                  