ईश्वर की प्रार्थना के लिये जनों को उपदेश देते हैं।
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यों ! (सबाधः) भय, रोगादि बाधाओं से युक्त इस संसार में (ऊतये) रक्षा पाने के लिये (बृहद्+गायन्तः) उत्तमोत्तम बृहत् गान गाते हुए (तरोभिः) बड़े वेग से (इन्द्रम्) उस परमपिता जगदीश की सेवा करो, जो (वः) तुम्हारे लिये (विदद्वसुम्) वास वस्त्र और धन दे रहा है। हे मनुष्यों ! मैं उपदेशक भी (भरं न) जैसे स्त्री भर्ता भरणकर्ता स्वामी को सेवती तद्वत् (कारिणम्) जगत्कर्ता उसको (सुतसोमे) सर्वपदार्थसम्पन्न (अध्वरे) नाना पन्थावलम्बी संसार में (हुवे) पुकारता और स्मरण करता हूँ ॥१॥
भावार्थभाषाः - अध्वर=संसार। अध्व+र। जिसमें अनेक मार्ग हों। जीवन के धर्मों के ज्ञानों के और रचना आदिकों के जहाँ शतशः मार्ग देख पड़ते हैं। इस शब्द का अर्थ आजकल याग किया जाता है। इसका बृहत् अर्थ लेना चाहिये। याग करने का भी बोध इस संसार के देखने से ही होता है। आम्र प्रतिवर्ष सहस्रशः फल देता है। एक कूष्माण्डबीज शतशः कूष्माण्ड पैदा करता है। इस सबका क्या उद्देश्य है, किस अभिप्राय से इतने फल एक वृक्ष में लगते हैं। विचार से परोपकार ही प्रतीत होता है। उस वृक्ष का उतने फलों से कुछ प्रयोजन नहीं दीखता। ये ही उदाहरण मनुष्यजीवन को भी परोपकार और परस्पर साहाय्य की ओर ले जाते हैं, इसी से अनेक यागादि विधान उत्पन्न हुए हैं ॥