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व॒यं घा॑ ते॒ अपू॒र्व्येन्द्र॒ ब्रह्मा॑णि वृत्रहन् । पु॒रू॒तमा॑सः पुरुहूत वज्रिवो भृ॒तिं न प्र भ॑रामसि ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vayaṁ ghā te apūrvyendra brahmāṇi vṛtrahan | purūtamāsaḥ puruhūta vajrivo bhṛtiṁ na pra bharāmasi ||

पद पाठ

व॒यम् । घ॒ । ते॒ । अपू॑र्व्या । इन्द्र॑ । ब्रह्मा॑णि । वृ॒त्र॒ऽह॒न् । पु॒रु॒ऽतमा॑सः । पु॒रु॒ऽहू॒त॒ । व॒ज्रि॒ऽवः॒ । भृ॒ति॑म् । न । प्र । भ॒रा॒म॒सि॒ ॥ ८.६६.११

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:66» मन्त्र:11 | अष्टक:6» अध्याय:4» वर्ग:50» मन्त्र:1 | मण्डल:8» अनुवाक:7» मन्त्र:11


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शिव शंकर शर्मा

पदार्थान्वयभाषाः - (वृकः+चित्) वृक के समान महादुष्ट जन भी (वारणः) सबके बाधक भी (उरामथिः) मार्ग में लूटनेवाले भी जन (अस्य+वयुनेषु) इसी की कामना में रहते हैं अर्थात् अन्याय करके भी इसी की शरण में आते हैं, इसी की प्रार्थना और नाम जपते हैं। यह आश्चर्य्य की बात है। (इन्द्र) हे इन्द्र ! (सः) वह तू (नः+इमम्+स्तोमम्) हमारे इस निवेदन को (जुजुषाणः) सुनता हुआ (आ+गहि) आ। हे भगवन् ! (चित्रया+धिया) विविध और अद्भुत-अद्भुत कर्म और ज्ञान की वृद्धि के लिये तू हमारे हृदय में बस ॥८॥
भावार्थभाषाः - उस परमदेव को सन्त, असन्त, चोर, डाकू, मूर्ख, विद्वान् सब ही भजते हैं, परन्तु वे अपने-अपने कर्म के अनुसार फल पाते हैं ॥८॥
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शिव शंकर शर्मा

पदार्थान्वयभाषाः - वृकश्चिदपि=महादुष्टोऽपि। वारणः=सर्वस्य बाधकोऽपि। उरामथिः=मार्गलुण्ठकोऽपि जनः। अस्यैवेश्वरस्य। वयुनेषु=कामनासु। भूषति=विराजते। स त्वम्। हे इन्द्र ! नोऽस्माकम्। इमं+स्तोमं=स्तोत्रं निवेदनम्। जुजुषाणः=शृण्वन्=आगहि=आगच्छ। पुनः। चित्रया धिया निमित्तेन च प्र प्रकषेण। आ गहि ॥८॥