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स वि॒द्वाँ अङ्गि॑रोभ्य॒ इन्द्रो॒ गा अ॑वृणो॒दप॑ । स्तु॒षे तद॑स्य॒ पौंस्य॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sa vidvām̐ aṅgirobhya indro gā avṛṇod apa | stuṣe tad asya pauṁsyam ||

पद पाठ

सः । वि॒द्वाँन् । अङ्गि॑रःऽभ्यः । इन्द्रः॑ । गाः । अ॒वृ॒णो॒त् । अप॑ । स्तु॒षे । तत् । अ॒स्य॒ । पौंस्य॑म् ॥ ८.६३.३

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:63» मन्त्र:3 | अष्टक:6» अध्याय:4» वर्ग:42» मन्त्र:3 | मण्डल:8» अनुवाक:7» मन्त्र:3


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शिव शंकर शर्मा

मनुष्य-कर्त्तव्यता और ईश्वरीय न्याय इससे दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - मूर्ख, विद्वान्, स्त्रियाँ, पुरुष हम सब मिलकर या पृथक्-२ (तम्+इन्द्रम्) उस भगवान् को (वै+उ) वारंवार निश्चित कर उसके गुण और स्वभाव को अच्छे प्रकार जान-जानकर (सत्यम्+इत्) सत्य ही मानकर (स्तवाम) स्तुति करें (अनृतम्+न) मिथ्याभूत असत्यकारी न मानकर स्तुति करें, क्योंकि (असुन्वतः) अशुभकारी, अविश्वासी ईश्वर विश्व नास्तिक जन के लिये (महान्+वधः) महान् वध है और (सुन्वतः+भूरि+ज्योतींषि) आस्तिक विश्वासी, श्रद्धालु सत्याश्रयी जन के लिये बहुत-२ प्रकाश, सुख दिए जाते हैं। क्योंकि (इन्द्रस्य+रातयः+भद्राः) इन्द्र के दान कल्याणविधायक हैं ॥१२॥
भावार्थभाषाः - आशय इसका यह है कि बहुत से मनुष्य असत्यव्यवहार के लिये भी ईश्वर को प्रसन्न करना चाहते हैं, किन्तु वह उनकी बड़ी भारी गलती है। भगवान् सत्यस्वरूप है, वह किसी के लिये भी असत्य व्यवहार नहीं करता। वह किसी का पक्षपाती नहीं। जो कोई भूल में पड़कर ईश्वर को अपने पक्ष में समझ असत्य काम करते हैं, वे अवश्य दण्ड पावेंगे ॥१२॥
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शिव शंकर शर्मा

मानवकर्त्तव्यतामीश्वरन्यायञ्चानया दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः - वयं सर्वे मनुष्या मूर्खा विद्वांसो वा। स्त्रियः पुरुषा वा। तमिन्द्रं वै=निश्चयेन। उ=निश्चयेन=पुनः पुनर्निश्चयं विधाय। सत्यमित्=सत्यमेव मत्वा। स्तवाम। न+अनृतम्=अनृतमसत्यं मत्वा न स्तवाम। यतः। असुन्वतः=अशुभकर्मवतः पुरुषस्य महान् वधो जायते। सुन्वतः=शुभकर्मवतश्च। भूरि=भूरीणि बहूनि ज्योतींषि प्राप्यन्ते। यत इन्द्रस्य रातयो दानानि भद्राः सति ॥१२॥