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सम॑नेव वपुष्य॒तः कृ॒णव॒न्मानु॑षा यु॒गा । वि॒दे तदिन्द्र॒श्चेत॑न॒मध॑ श्रु॒तो भ॒द्रा इन्द्र॑स्य रा॒तय॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

samaneva vapuṣyataḥ kṛṇavan mānuṣā yugā | vide tad indraś cetanam adha śruto bhadrā indrasya rātayaḥ ||

पद पाठ

सम॑नाऽइव । व॒पु॒ष्य॒तः । कृ॒णव॑त् । मानु॑षा । यु॒गा । वि॒दे । तत् । इन्द्रः॑ । चेत॑नम् । अध॑ । श्रु॒तः । भ॒द्राः । इन्द्र॑स्य । रा॒तयः॑ ॥ ८.६२.९

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:62» मन्त्र:9 | अष्टक:6» अध्याय:4» वर्ग:41» मन्त्र:3 | मण्डल:8» अनुवाक:7» मन्त्र:9


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शिव शंकर शर्मा

पदार्थान्वयभाषाः - (ऋचीषमः) ऋचाओं और ज्ञानों से स्तवनीय और पूजनीय वह महेश्वर हम प्राणियों के सब कर्मों को (अव+चष्टे) नीचे देखता है (अवटान्+इव+मानुषः) जैसे मनुष्य कूपादिकों को नीचे देखता है। देखकर (जुष्ट्वी) यदि हमारे शुभ होते हैं, तो वह प्रसन्न और यदि अशुभ अमङ्गल और अन्याय को वह देखता है, तो अप्रसन्न होता है। हे मनुष्यों ! जो (दक्षस्य) ईश्वर के मार्ग पर चलते हुए उन्नति कर रहे हैं और (सोमिनः) सदा शुभकर्मों में लगे रहते हैं, उनके आत्मा को (सखायम्) जगत् के साथ मित्र बनाता है और (युजम्+कृणुते) सब कार्य के लिए योग्य बनाता है, अतः वही महान् देव उपास्य है ॥६॥
भावार्थभाषाः - ईश्वर उसी का साहाय्य करता है, जो स्वयं उद्योगी है और उसके पथ पर चलता है ॥६॥
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शिव शंकर शर्मा

पदार्थान्वयभाषाः - ऋचीषमः=ऋग्भिः स्तवनीयः। ऋचां=ज्ञानानां स्वामी वा परमेश्वरः। अस्मान्। अवचष्टे=अधः पश्यति। अत्र दृष्टान्तः। अवटान्+इव मानुषः=यथा मनुष्यः। अवटान्=कूपादीन् अधः पश्यति। पुनः। दृष्ट्वा। जुष्ट्वी=प्रसन्नो भूत्वा। दक्षस्य=प्रवृद्धस्य। सोमिनः=शुभकर्मिणः पुरुषस्य। आत्मानम्। सखायम्। युजम्=योग्यञ्च। कृणुते=करोति ॥६॥