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प्रो अ॑स्मा॒ उप॑स्तुतिं॒ भर॑ता॒ यज्जुजो॑षति । उ॒क्थैरिन्द्र॑स्य॒ माहि॑नं॒ वयो॑ वर्धन्ति सो॒मिनो॑ भ॒द्रा इन्द्र॑स्य रा॒तय॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pro asmā upastutim bharatā yaj jujoṣati | ukthair indrasya māhinaṁ vayo vardhanti somino bhadrā indrasya rātayaḥ ||

पद पाठ

प्रो इति॑ । अ॒स्मै॒ । उप॑ऽस्तुति॑म् । भर॑त । यत् । जुजो॑षति । उ॒क्थैः । इन्द्र॑स्य । माहि॑नम् । वयः॑ । व॒र्ध॒न्ति॒ । सो॒मिनः॑ । भ॒द्राः । इन्द्र॑स्य । रा॒तयः॑ ॥ ८.६२.१

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:62» मन्त्र:1 | अष्टक:6» अध्याय:4» वर्ग:40» मन्त्र:1 | मण्डल:8» अनुवाक:7» मन्त्र:1


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शिव शंकर शर्मा

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे ईश ! (त्वम्) तू (नः) हमको (पश्चात्) आगे से (अधरात्) नीचे और ऊपर से (उत्तरात्) उत्तर और दक्षिण से (पुरः) पूर्व से अर्थात् (विश्वतः) सर्व प्रदेश से (नि+पाहि) बचा। हे भगवन् ! (दैव्यम्+भयम्) देवसम्बन्धी भय को (अस्मत्) हमसे (आरे+कृणुहि) दूर करो और (अदेवीः+हेतीः) अदेवसम्बन्धी आयुधों को भी (आरे) दूर करो ॥१६॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यसमाज को जितना भय है, उतना किसी प्राणी को नहीं। कारण इसमें यह है−देखा गया है कभी-२ उन्मत्त राजा सम्पूर्ण देश को विविध यातनाओं के साथ भस्म कर देता है। कभी किसी विशेष वंश को निर्मूल कर देता है। कभी इस भयङ्करता से अपने शत्रु को मारता है कि सुनने मात्र से रोमाञ्च हो जाता है। इसके अतिरिक्त खेती करने में भी स्वतन्त्र नहीं है, राजा और जमींदार उससे कर लेते हैं। चोर डाकू आदि का भी भय सदा बना रहता है। इसी प्रकार विद्युत्पात, दुर्भिक्ष, अतिवृष्टि, महामारी आदि अनेक उपद्रवों के कारण मनुष्य भयभीत रहता है, अतः इस प्रकार की प्रार्थना आती है ॥१६॥
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शिव शंकर शर्मा

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! त्वं नोऽस्मान्। पश्चात्। अधरात्=अधोभागात्। ऊर्ध्वभागाच्च। उत्तरात्। दक्षिणतश्च। पुरः=पुरस्तात्। किं बहुना। विश्वतः=सर्वास्मात् प्रदेशात्। निपाहि। हे देव ! अस्मद्=अस्मत्तः। दैव्यं भयमा। आरे=दूरे। कृणुहि=कुरु। पुनः। अदेवीः+हेतीः=आसुराणि चायुधानि च। आरे=कुरु ॥१६॥