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पा॒हि नो॑ अग्न॒ एक॑या पा॒ह्यु१॒॑त द्वि॒तीय॑या । पा॒हि गी॒र्भिस्ति॒सृभि॑रूर्जां पते पा॒हि च॑त॒सृभि॑र्वसो ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pāhi no agna ekayā pāhy uta dvitīyayā | pāhi gīrbhis tisṛbhir ūrjām pate pāhi catasṛbhir vaso ||

पद पाठ

पा॒हि । नः॒ । अ॒ग्ने॒ । एक॑या । पा॒हि । उ॒त । द्वि॒तीय॑या । पा॒हि । गीः॒ऽभिः । ति॒सृऽभिः॑ । ऊ॒र्जा॒म् । प॒ते॒ । पा॒हि । च॒त॒सृऽभिः॑ । व॒सो॒ इति॑ ॥ ८.६०.९

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:60» मन्त्र:9 | अष्टक:6» अध्याय:4» वर्ग:33» मन्त्र:4 | मण्डल:8» अनुवाक:7» मन्त्र:9


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शिव शंकर शर्मा

पदार्थान्वयभाषाः - हे ईश ! (शोच) प्रकृतियों में तू दीप्यमान हो। (शोचिष्ठ) हे अतिशय प्रकाशमय ! (दीदिहि) सबको प्रकाशित कर। (विशे) प्रजामात्र को तथा (स्तोत्रे) स्तुतिपाठक जन को (मयः) कल्याण (रास्व) दे। तू (महान्+असि) महान् है। हे ईश ! (मम) मेरे (सूरयः) विद्वद्वर्ग (देवानाम्) सत्पुरुषों के (शर्मन्) कल्याणसाधन में ही सदा (सन्तु) रहें और वे (शत्रूषाहः) शत्रुओं को दबानेवाले और (स्वग्नयः) अग्निहोत्रादि शुभकर्मवान् हों ॥६॥
भावार्थभाषाः - यह ईश्वर से आशीर्वाद माँगना है। उसी की कृपा से धन, जन, बल और प्रताप प्राप्त होते हैं। हमारे स्वजन और परिजन भी जगत् के हितकारी हों और नित्य नैमित्तिक कर्मों में सदा आसक्त रहें ॥६॥
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शिव शंकर शर्मा

पदार्थान्वयभाषाः - हे ईश ! त्वं शोच=प्रकृतिषु दीप्यस्व। हे शोचिष्ठ=हे अतिशयप्रकाशमय ! दीदिहि=जगद्दीपय। विशे=प्रजायै। स्तोत्रे=स्तुतिकर्त्रे च। मयः=कल्याणम्। रास्व=देहि। त्वं महानसि। पुनः। मम सूरयः=विद्वांसः देवानां सत्पुरुषाणाम्। शर्मन्=शर्मणि=कल्याणे सन्तु। शत्रूसाहः=शत्रूणामभिभवितारः। स्वग्नयः= अग्निहोत्रादिशुभकर्मवन्तश्च सन्तु ॥६॥