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उ॒त ब्र॑ह्म॒ण्या व॒यं तुभ्यं॑ प्रवृद्ध वज्रिवः । विप्रा॑ अतक्ष्म जी॒वसे॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

uta brahmaṇyā vayaṁ tubhyam pravṛddha vajrivaḥ | viprā atakṣma jīvase ||

पद पाठ

उ॒त । ब्र॒ह्म॒ण्या । व॒यम् । तुभ्य॑म् । प्र॒ऽवृ॒द्ध॒ । व॒ज्रि॒ऽवः॒ । विप्राः॑ । अ॒त॒क्ष्म॒ । जी॒वसे॑ ॥ ८.६.३३

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:6» मन्त्र:33 | अष्टक:5» अध्याय:8» वर्ग:15» मन्त्र:3 | मण्डल:8» अनुवाक:2» मन्त्र:33


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शिव शंकर शर्मा

इन्द्र की स्तुति कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (प्रवृद्ध) हे सबमें उच्चतम परमश्रेष्ठ परमात्मन् ! (वज्रिवः) हे दण्डधारिन् महाराज ! (उत) और (वयम्) हम (विप्राः) तेरे मेधावी सेवकगण (तुभ्यम्) तेरे लिये (ब्रह्मण्या) उत्तम-२ स्तोत्रों को (जीवसे) जीवनार्थ=स्वजीवनधारणार्थ (अतक्ष्म) बनाते हैं। भगवान् की स्तुति विना मनुष्य का जीवन वृथा है। विद्वान् जन उसकी स्तुति विना रह नहीं सकते। उनका जीवन ही स्तोत्र है ॥३३॥
भावार्थभाषाः - जो मेधाविगण ईश्वर की विभूतियों के तत्त्व को जानते हैं, वे उसकी महिमा के गाने के विना कैसे जी सकते हैं, हे मनुष्यों ! तुम सब भी उसकी महिमा को जानकर सदा गाओ ॥३३॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (उत) और (वज्रिवः) हे वज्रशक्तिवाले (प्रवृद्ध) सबसे वृद्ध ! (वयम्, विप्राः) विद्वान् हम लोग (जीवसे) जीवन के लिये (तुभ्यम्) आपके निमित्त (ब्रह्मण्या) ब्रह्मसम्बन्धी कर्मों को (अतक्ष्म) संकुचितरूप से कर रहे हैं ॥३३॥
भावार्थभाषाः - हे वज्रशक्तिसम्पन्न परमात्मन् ! आप सबसे प्राचीन और सबको यथायोग्य कर्मों में प्रवृत्त करानेवाले हैं। हे प्रभो ! विद्वान् लोग अपने जीवन को उच्च बनाने के लिये वैदिक कर्मों में निरन्तर रत रहते हैं, जिससे लोक में चहुँ दिक् आपका विस्तार हो ॥३३॥
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शिव शंकर शर्मा

इन्द्रस्य स्तुतिः कथ्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे प्रवृद्ध ! =सर्वापेक्षया अतिशयवृद्धिंगत ! सर्वेभ्य उच्चतम। हे वज्रिवः=हे दण्डधारिन् महाराज ! एको मत्वर्थीयोऽनुवादः। उत=अपि च। वचं विप्रास्तव भक्ता मेधाविनो जनाः। तुभ्यम्=त्वदर्थम्। ब्रह्मण्या=ब्रह्माणि सर्वोत्तमानि स्तोत्राणि। सुपां सुलुगिति सुपो याजादेशः। जीवसे=जीवनाय। अतक्ष्म=आकार्ष्म=कुर्मः ॥३३॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (उत) अथ (वज्रिवः) हे वज्रशक्तिमन् (प्रवृद्ध) सर्वेभ्योऽधिक ! (वयम्, विप्राः) वयं विद्वांसः (जीवसे) जीवनाय (तुभ्यम्) त्वदर्थम् (ब्रह्मण्या) ब्रह्मसम्बन्धीनि कर्माणि (अतक्ष्म) अकार्ष्म ॥३३॥