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देवता: इन्द्र: ऋषि: वत्सः काण्वः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः

कण्वा॒ इन्द्रं॒ यदक्र॑त॒ स्तोमै॑र्य॒ज्ञस्य॒ साध॑नम् । जा॒मि ब्रु॑वत॒ आयु॑धम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

kaṇvā indraṁ yad akrata stomair yajñasya sādhanam | jāmi bruvata āyudham ||

पद पाठ

कण्वाः॑ । इन्द्र॑म् । यत् । अक्र॑त । स्तोमैः॑ । य॒ज्ञस्य॑ । साध॑नम् । जा॒मि । ब्रु॒व॒ते॒ । आयु॑धम् ॥ ८.६.३

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:6» मन्त्र:3 | अष्टक:5» अध्याय:8» वर्ग:9» मन्त्र:3 | मण्डल:8» अनुवाक:2» मन्त्र:3


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शिव शंकर शर्मा

विद्वान् ईश्वर को ही सर्वसाधन मानते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (कण्वाः) स्तुतिपाठक अथवा ग्रन्थरचयिता जन (यत्) जिस (इन्द्रम्) ईश्वर को (स्तोमैः) स्वरचित स्तोत्रों से (यज्ञस्य) यज्ञ का (साधनम्) साधन (अक्रत) बनाते हैं। मानसिक यज्ञ में इन्द्र को ही सब प्रकार का साधन मानते हैं और (जामि) भ्राता भी उसी को (ब्रुवते) कहते हैं और (आयुधम्) रक्षासाधन भी उसको मानते हैं। ईश्वरोपासक जन किसी अन्य वस्तु की अपेक्षा नहीं करते। हम आधुनिक लोग भी मानसिक अथवा बाह्य यज्ञ में अन्य सामग्री की अपेक्षा न करें। किन्तु ईश्वर को ही सर्वसाधन मान शुभकर्म में प्रवृत्त हों ॥३॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यों ! परमगुरु में विश्वास करो, उसकी उपासना के लिये अन्य साधनों का संचय मत करो। युद्ध में भी उसी को प्रधान आयुध मानो, क्योंकि ईश्वरोपासक जन वैसा ही करते हैं ॥३॥
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आर्यमुनि

अब मनोवाञ्छित फल की प्राप्ति के लिये परमात्मपरायण होना कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (कण्वाः) विद्वान् (यत्) जब (इन्द्रम्) परमात्मा को (स्तोमैः) स्तोत्र द्वारा (यज्ञस्य, साधनम्) यज्ञ का साधनहेतु (अक्रत) बना लेते हैं, तब (आयुधम्) शस्त्रसमुदाय को (जामि) निष्प्रयोजन (ब्रुवत) कहते हैं ॥३॥
भावार्थभाषाः - जब विद्वान् पुरुष तप, अनुष्ठान और यज्ञों द्वारा परमात्मा के सत्यादि गुणों को धारण कर पवित्र जीवनवाले हो जाते हैं, तब परमात्मा उनको मनोवाञ्छित फल प्रदान करते हैं, फिर उनके लिये शस्त्रसमुदाय निष्प्रयोजन है अर्थात् जब परमात्मपरायण पुरुष की सब इष्टकामनाएँ वाणी द्वारा ही सिद्ध हो जाती हैं, तो शस्त्र व्यर्थ हैं, इसलिये इच्छित फल की कामनावाले पुरुष को परमात्मपरायण होना चाहिये ॥३॥
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शिव शंकर शर्मा

विद्वांस इन्द्रमेव सर्वसाधनं मन्यन्ते।

पदार्थान्वयभाषाः - कण्वाः=स्तोतारो ग्रन्थविरचयितारो वा। स्तोमैः=स्वरचितैः स्तोत्रैः। यद्=यम्। इन्द्रमिन्द्रमेव। यज्ञस्य= मानसिकयागस्य। साधनम्=सामग्रीम्। अक्रत=कुर्वन्ति। तथा। तमेव। जामि=जामिं भ्रातरम्। ब्रुवते=कथयन्ति। भ्रातृत्वेन तमेवाह्वयन्ति। आयुधम्=रक्षासाधनमपि तमेव मन्यन्ते। ईश्वरोपासका नान्यत् किमप्यपेक्षन्ते। वयमपि तथा कुर्म इति शिक्ष ॥३॥
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आर्यमुनि

अथ मनोरथप्राप्तये परमात्मपरत्वमावश्यकमिति कथ्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (कण्वाः) विद्वांसः (यत्) यदा (इन्द्रम्) परमात्मानम् (स्तोमैः) स्तोत्रद्वारा (यज्ञस्य, साधनम्) यज्ञस्य साधनहेतुम् (अक्रत) कुर्वन्ति तदा (आयुधम्) शस्त्रजातम् (जामि) निष्प्रयोजनं (ब्रुवत) ब्रुवन्ति ॥३॥