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ता सु॑दे॒वाय॑ दा॒शुषे॑ सुमे॒धामवि॑तारिणीम् । घृ॒तैर्गव्यू॑तिमुक्षतम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tā sudevāya dāśuṣe sumedhām avitāriṇīm | ghṛtair gavyūtim ukṣatam ||

पद पाठ

ता । सु॒ऽदे॒वाय॑ । दा॒शुषे॑ । सु॒ऽमे॒धाम् । अवि॑ऽतारिणीम् । घृ॒तैः । गव्यू॑तिम् । उ॒क्ष॒त॒म् ॥ ८.५.६

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:5» मन्त्र:6 | अष्टक:5» अध्याय:8» वर्ग:2» मन्त्र:1 | मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:6


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शिव शंकर शर्मा

राजा और अमात्यादिकों के कर्तव्य का उपदेश देते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - वे राजा और अधिकारीवर्ग कैसे हों, इस अपेक्षा में पुनः कहते हैं−हे राजन् तथा अमात्यादि वर्ग ! (ता) वे आप सब (सुदेवाय) परमोद्योगी, ईश्वरोपासक और (दाशुषे) विद्यादि दाता पुरुष के लिये (अवितारिणीम्) अनपायिनी=निर्दोषा (सुमेधाम्) सुमति देवें। और उनके लिये (गव्यूतिम्) गौवों के चरने की भूमि को (उक्षतम्) जलों से सिचावें ॥६॥
भावार्थभाषाः - राजा को उचित है कि ईश्वरोपासक आदिकों की और गवादि पशु संचारभूमि की सर्वोपायों से रक्षा करे ॥६॥
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आर्यमुनि

अब सदाचारवर्धक कर्मों के लिये प्रार्थना करना कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (ता) वे (सुदेवाय) शोभन देवों सहित (दाशुषे) यजमान के लिये (सुमेधाम्) सुन्दर संगतिवाली (अवितारिणीम्) आत्मा की वञ्चना न करनेवाली (गव्यूतिम्) इन्द्रियविषयभूतस्थली को (घृतैः) स्नेह से (उक्षतम्) सिञ्चित करें ॥६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में याज्ञिक विद्वानों की ओर से यह प्रार्थना कथन की गई है कि हे कर्मयोगिन् ! आप हमारे यजमान की आत्मा को उच्च बनावें अर्थात् उन पर सदा प्रेम की दृष्टि रखें, जिससे वे अपनी इन्द्रियों को वशीभूत रखते हुए सदाचार में प्रवृत्त रहें, जिससे उनके यज्ञसम्बन्धी कार्य्य निर्विघ्न पूर्ण हों ॥६॥
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शिव शंकर शर्मा

राजादिकर्तव्यमुपदिशति।

पदार्थान्वयभाषाः - पुनस्तौ राजानौ कीदृशौ इत्यपेक्षायामाह−हे अश्विनौ। ता=तौ युवाम्। सुदेवाय=सुष्ठु दीव्यति विजेतुमिच्छति यः स सुदेवः परमोद्योगी। यद्वा। शोभनो देवो यस्य स सुदेव ईश्वरोपासकः। तस्मै। दाशुषे=यो विद्यादिकम्। दाशति=ददाति स दाश्वान्। तस्मै दाशुषे। अत्र तादर्थ्ये चतुर्थी। ईदृक्पुरुषाय। अवितारिणीम्=वितरणं विगमनमपायः=अनपायिनीम्। सुमेधाम्=सुमतिं दत्तम्। पुनः। गव्यूतिम्=गावो यूयन्ते संपूज्यन्तेऽत्रेति गव्यूतिर्गोसंचारभूमिः। ताम्। घृतैः=क्षरणशीलैरुदकैः। उक्षतम्=सिञ्चतम्। उक्ष सेचने ॥६॥
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आर्यमुनि

अथ सदाचारविषयकप्रार्थना कथ्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (ता) तौ (सुदेवाय) शोभनदेवसहिताय (दाशुषे) यजमानाय (सुमेधाम्) सुसंगमनाम् (अवितारिणीम्) अप्रतारिकाम् (गव्यूतिम्) इन्द्रियविषयभूतां स्थलीम् (घृतैः) स्नेहैः (उक्षतम्) सिञ्चतम् ॥६॥