पदार्थान्वयभाषाः - (यथा) जिस प्रकार (कृत्व्ये, धने) प्राप्तव्य धन के विषय में (अंशुं) अर्थशास्त्रवेत्ता की (गोषु) इन्द्रियों के विषय में (अगस्त्यम्) अगस्त्य=सदाचारी की (उत) और (यथा) जिस प्रकार (वाजेषु) यश के विषय में (सोभरिम्) सुन्दर पालन करनेवाले महर्षि की रक्षा की, उसी प्रकार हमारी रक्षा करें ॥२६॥
भावार्थभाषाः - “धर्मादन्यत्र न गच्छन्तीत्यगस्तयः, तेषु साधुस्तं सदाचारिणम्”=जो धर्ममार्ग से अन्यत्र न जाए, उसको “अगस्ति” और अगस्ति में जो साधु है, उसको “अगस्त्य” कहते हैं। यहाँ “तत्र साधुः” इस पाणिनि-सूत्र से “यत्” प्रत्यय होता है, जिसके अर्थ सदाचारी के हैं अर्थात् जैसे अर्थवेत्ता, सदाचारी तथा महर्षि की आपने रक्षा की वा करते हैं, उसी प्रकार आप हमारी भी रक्षा करें, यह याज्ञिक पुरुषों की ओर से प्रार्थना है, “सोभरि” शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार है कि “सु=सम्यक् हरत्यज्ञानमिति सोभरिः”=जो भले प्रकार अज्ञान का नाश करे, उसको “सोभरि” कहते हैं। यहाँ “हृग्रहोर्भश्छन्दसि” इस पाणिनि-सूत्र से “ह” को “भ” हो गया है ॥२६॥