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यथो॒त कृत्व्ये॒ धनें॒ऽशुं गोष्व॒गस्त्य॑म् । यथा॒ वाजे॑षु॒ सोभ॑रिम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yathota kṛtvye dhane ṁśuṁ goṣv agastyam | yathā vājeṣu sobharim ||

पद पाठ

यथा॑ । उ॒त । कृत्व्ये॑ । धने॑ । अं॒शुम् । गोषु॑ । अ॒गस्त्य॑म् । यथा॑ । वाजे॑षु । सोभ॑रिम् ॥ ८.५.२६

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:5» मन्त्र:26 | अष्टक:5» अध्याय:8» वर्ग:6» मन्त्र:1 | मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:26


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शिव शंकर शर्मा

राजा को सबकी रक्षा करनी चाहिये, यह उपदेश इससे देते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् तथा मन्त्रिमण्डल आप (यथा) जैसे (धने+कृत्व्ये) धन के लिये (अंशुम्) पृथिवी के भिन्न-भिन्न भाग को अथवा जिसको भूमि का एक-२ टुकड़ा मिला है, ऐसे ज़मींदार को बचाते हैं। जैसे (गोषु) गवादि पशुओं के लिये (अगस्त्यम्) पर्वतादिकों को बचाते हैं (यथा) जैसे (वाजेषु) विज्ञान के अभ्युदय के लिये (सोभरिम्) यन्त्रादिकला की रक्षा करते हैं, तद्वत् हमारी भी रक्षा कीजिये ॥२६॥
भावार्थभाषाः - कृषिबुद्धि के लिये भूभागों को, पश्वादिकों के लिये वनों को और विज्ञानादिकों के लिये विविधकलाओं को राजा बढ़ावे ॥२६॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यथा) जिस प्रकार (कृत्व्ये, धने) प्राप्तव्य धन के विषय में (अंशुं) अर्थशास्त्रवेत्ता की (गोषु) इन्द्रियों के विषय में (अगस्त्यम्) अगस्त्य=सदाचारी की (उत) और (यथा) जिस प्रकार (वाजेषु) यश के विषय में (सोभरिम्) सुन्दर पालन करनेवाले महर्षि की रक्षा की, उसी प्रकार हमारी रक्षा करें ॥२६॥
भावार्थभाषाः - “धर्मादन्यत्र न गच्छन्तीत्यगस्तयः, तेषु साधुस्तं सदाचारिणम्”=जो धर्ममार्ग से अन्यत्र न जाए, उसको “अगस्ति” और अगस्ति में जो साधु है, उसको “अगस्त्य” कहते हैं। यहाँ “तत्र साधुः” इस पाणिनि-सूत्र से “यत्” प्रत्यय होता है, जिसके अर्थ सदाचारी के हैं अर्थात् जैसे अर्थवेत्ता, सदाचारी तथा महर्षि की आपने रक्षा की वा करते हैं, उसी प्रकार आप हमारी भी रक्षा करें, यह याज्ञिक पुरुषों की ओर से प्रार्थना है, “सोभरि” शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार है कि “सु=सम्यक् हरत्यज्ञानमिति सोभरिः”=जो भले प्रकार अज्ञान का नाश करे, उसको “सोभरि” कहते हैं। यहाँ “हृग्रहोर्भश्छन्दसि” इस पाणिनि-सूत्र से “ह” को “भ” हो गया है ॥२६॥
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शिव शंकर शर्मा

राज्ञः सर्वरक्षा कर्तव्येत्युपदिशति।

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजानौ ! उत=अन्यच्च। यथा=येन प्रकारेण। धने। कृत्व्ये=कर्तव्ये सति=धनार्थमिति यावत्। अंशुम्=पृथिव्यादिभागम्=भागकारिणं प्रजावर्गं वा रक्षथः। यथा। गोषु=गवादिपश्वर्थम्। अगस्त्यम्=पर्वतादिसमूहं रक्षथः। यथा। वाजेषु=विज्ञानेषु=विज्ञानार्थम्। सोभरिम्=यन्त्रादिकलां रक्षथस्तथैवास्मानपि रक्षतम् ॥२६॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (उत) अथ च (यथा) येन प्रकारेण (कृत्व्ये, धने) कर्तव्ये धने (अंशुं) अर्थशास्त्रवेत्तारं (गोषु) इन्द्रियाणां विषये (अगस्त्यम्) सदाचारिणम् (वाजेषु) यशस्सु च (सोभरिम्) सुपालकं महर्षिमरक्षतम्, तथैव मामपि ॥२६॥