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यथा॑ चि॒त्कण्व॒माव॑तं प्रि॒यमे॑धमुपस्तु॒तम् । अत्रिं॑ शि॒ञ्जार॑मश्विना ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yathā cit kaṇvam āvatam priyamedham upastutam | atriṁ śiñjāram aśvinā ||

पद पाठ

यथा॑ । चि॒त् । कण्व॑म् । आव॑तम् । प्रि॒यऽमे॑धम् । उ॒प॒ऽस्तु॒तम् । अत्रि॑म् । शि॒ञ्जार॑म् । अ॒श्वि॒ना॒ ॥ ८.५.२५

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:5» मन्त्र:25 | अष्टक:5» अध्याय:8» वर्ग:5» मन्त्र:5 | मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:25


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शिव शंकर शर्मा

इससे अनाथरक्षा के लिये उपदेश देते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (अश्विना) हे अश्वयुक्त राजन् तथा हे मन्त्रिमण्डल ! (यथा+चित्) जिस प्रकार (कण्वम्) विद्वद्वर्ग की (प्रियमेधम्) यज्ञादि शुभकर्मियों के या बुद्धिमानों के समूह की और (उपस्तुतम्) प्रशंसनीय समुदाय की आप (आवतम्) रक्षा करते चले आए हैं, इसी प्रकार (शिञ्जारम्) अर्थियों से याचना करते हुए (अत्रिम्) माता पिता भ्राता तीनों से रहित बालकों की रक्षा कीजिये ॥२५॥
भावार्थभाषाः - जो किन्हीं विशेष विद्याओं में निपुण हैं, वे कण्व, जो सदा प्रेम से यज्ञ करते हैं, वे प्रियमेध, जो माता-पिता और भ्राता, इन तीनों से रहित हैं, वे अत्रि, इनकी और एतत्समान अन्यान्य जनों की राजा सदा रक्षा करे ॥२५॥
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आर्यमुनि

अब उक्त दोनों से रक्षा की प्रार्थना करना कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (अश्विना) हे व्यापकशक्तिवाले ! (यथाचित्) जिस प्रकार (कण्वं, उपस्तुतं) उपस्तुति करनेवाले विद्वान् (प्रियमेधं) प्रशंसनीय बुद्धिवाले मनुष्य तथा (शिञ्जारं, अत्रिं) शब्दायमान अत्रि की (आवतं) रक्षा की, उसी प्रकार मेरी भी रक्षा करें ॥२५॥
भावार्थभाषाः - हे ज्ञानयोगिन् तथा कर्मयोगिन् ! जिस प्रकार आपने स्तुति करनेवाले विद्वान्, पूज्यबुद्धिवाले मनुष्य तथा अत्रि की रक्षा की, उसी प्रकार मेरी रक्षा करें अर्थात् “अविद्यमानानि आधिभौतिकाधिदैविकाध्यात्मिकानि दुःखानि यस्यासावत्रिः”=जिसके आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक तीनों प्रकार के दुःखों की निवृत्ति हो गई हो, उसको “अत्रि” कहते हैं। सो जैसे आप अत्रि की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार मेरी रक्षा करें ॥२५॥
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शिव शंकर शर्मा

अनाथरक्षार्थोपदेशः।

पदार्थान्वयभाषाः - कण्वादिषु जातावेकवचनम्। हे अश्विना=अश्विनौ राजानौ। यथाचित्=येन प्रकारेण खलु। युवाम्। कण्वम्=विद्वद्वर्गम्। प्रियमेधम्=यज्ञादिप्रियसमूहम्। उपस्तुतम्=प्रशंसनीयसंघम्। आवतम्=रक्षथः। तथैव। शिञ्जारम्=शब्दायमानमर्थिभ्यो धनं याचमानम्। अत्रिम्=मातापितृभ्रातृत्रयविहीनमनाथं बालकमपि। रक्षतमित्युपदेशः ॥२५॥
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आर्यमुनि

अथ ताभ्यां रक्षा प्रार्थ्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (अश्विना) हे व्यापकौ ! (यथाचित्) यथा हि (कण्वं, उपस्तुतं) उपस्तुतिकर्तारं विद्वांसं (प्रियमेधं) प्रशस्तबुद्धिं (शिञ्जारं, अत्रिं) शब्दायमानं अत्रिम्=“अविद्यमानानि आधिभौतिकाधिदैविकाध्यात्मिकानि दुःखानि यस्यासावत्रिः” तम् (आवतं) रक्षतं तथा मामपि ॥२५॥