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नृ॒वद्द॑स्रा मनो॒युजा॒ रथे॑न पृथु॒पाज॑सा । सचे॑थे अश्विनो॒षस॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

nṛvad dasrā manoyujā rathena pṛthupājasā | sacethe aśvinoṣasam ||

पद पाठ

नृ॒ऽवत् । द॒स्रा॒ । म॒नः॒ऽयुजा॑ । रथे॑न । पृ॒थु॒ऽपाज॑सा । सचे॑थे॒ इति॑ । अ॒श्वि॒ना॒ । उ॒षस॑म् ॥ ८.५.२

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:5» मन्त्र:2 | अष्टक:5» अध्याय:8» वर्ग:1» मन्त्र:2 | मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:2


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शिव शंकर शर्मा

प्रभात में प्रथम राजाओं को क्या करना चाहिये, यह शिक्षा देते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (दस्रा) हे दर्शनीय अथवा हे शत्रुओं के विनाशयिता (अश्विना) हे मनुष्यसमूह विधाता राजा और अमात्य ! आप दोनों (नृवत्) नेता पुरुषों को जैसा उचित है, वैसा सज-धजकर (रथेन) रथद्वारा प्रथम (उषसम्) बाहर जाकर प्रभात काल का वायु (सचेथे) सेविये। वह रथ कैसा होना चाहिये तो (मनोयुजा) मनोहर, सुन्दर पुनः (पृथुपाजसा) विस्तीर्णबल अर्थात् दृढ ॥२॥
भावार्थभाषाः - सर्व कल्याणाभिलाषी जनों को उचित है कि प्रातःकाल उठ बाहर जा आवश्यक और स्नान कर, सन्ध्या के पश्चात् ईश्वर का ध्यान करें ॥२॥
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आर्यमुनि

अब ज्ञानयोगी और कर्मयोगी का उषाकाल सेवी होना कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (दस्रा, अश्विना) दर्शनीय ज्ञानयोगी और कर्मयोगी अपना राष्ट्र देखने तथा प्रातःकालिक वायुसेवन के लिये (नृवत्) साधारण मनुष्य के समान (पृथुपाजसा) अतिवेगवाले (मनोयुजा, रथेन) इच्छागामी रथ द्वारा (उषसम्) उषाकाल का (सचेथे) सेवन करते हैं ॥२॥
भावार्थभाषाः - ज्ञानयोगी तथा कर्मयोगी उषाकाल में जागकर वेदप्रतिपादित सन्ध्या अग्निहोत्रादि कर्मों से निवृत्त हो स्वेच्छाचारी रथपर बैठ कर अपने राष्ट्र का प्रबन्ध देखने तथा उस काल का वायुसेवन करने के लिये जाते हैं। जो पुरुष कर्मयोगी के इस आचरण का सेवन करते हैं, वे भी बुद्धिमान् तथा ऐश्वर्य्यवान् और दीर्घजीवी होकर अनेक प्रकार के सुख अनुभव करते हैं ॥२॥
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शिव शंकर शर्मा

प्रभाते प्रथमं राजभिः किमनुष्ठेयमिति शिक्षते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे दस्रा=दस्रौ दर्शनीयौ शत्रूणामुपक्षयितारौ वा। हे अश्विना=अश्विनौ मनुष्यसमूहविधातारौ राजामात्यौ ! युवां प्रथमम्। नृवत्=यथा नरौ=नेतारौ आचरतस्तथा। रथेन। बहिर्गत्वा। उषसम्=प्रभातं तत्कालिकं वायुम्। सचेथे−सचेथां=सेवेथाम्। कीदृशेन रथेन। मनोयुजा=मनो यत्र युज्यते मनोहरेणेत्यर्थः। पुनः। पृथुपाजसा=विस्तीर्णबलेन=दृढेनेत्यर्थः ॥२॥
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आर्यमुनि

अथ ज्ञानयोगिकर्मयोगिनावुपलक्ष्य प्रातर्भ्रमणं सुखदमिति कथ्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (दस्रा, अश्विना) दर्शनीयौ ज्ञानयोगिकर्मयोगिनौ स्वराष्ट्रं द्रष्टुं वायुं सेवितुं च (नृवत्) साधारणमनुष्यवत् (पृथुपाजसा) अतिबलिना (मनोयुजा, रथेन) इच्छागामिवाहनेन (उषसम्) उषःकालम् (सचेथे) सेवेते ॥२॥