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यो न॒ इन्दु॑: पितरो हृ॒त्सु पी॒तोऽम॑र्त्यो॒ मर्त्याँ॑ आवि॒वेश॑ । तस्मै॒ सोमा॑य ह॒विषा॑ विधेम मृळी॒के अ॑स्य सुम॒तौ स्या॑म ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yo na induḥ pitaro hṛtsu pīto martyo martyām̐ āviveśa | tasmai somāya haviṣā vidhema mṛḻīke asya sumatau syāma ||

पद पाठ

यः । नः॒ । इन्दुः॑ । पि॒त॒रः॒ । हृ॒त्ऽसु । पी॒तः । अम॑र्त्यः । मर्त्या॑न् । आ॒ऽवि॒वेश॑ । तस्मै॑ । सोमा॑य । ह॒विषा॑ । वि॒धे॒म॒ । मृ॒ळी॒के । अ॒स्य॒ । सु॒ऽम॒तौ । स्या॒म॒ ॥ ८.४८.१२

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:48» मन्त्र:12 | अष्टक:6» अध्याय:4» वर्ग:13» मन्त्र:2 | मण्डल:8» अनुवाक:6» मन्त्र:12


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शिव शंकर शर्मा

फिर उसी अर्थ को कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (सोमदेव) हे सर्वश्रेष्ठ और प्रशंसनीय रस और अन्न ! (नः) हमारे (तन्वः) शरीर का (गोपाः) रक्षक (त्वम्+हि) तू ही है, इसलिये (गात्रे+गात्रे) प्रत्येक अङ्ग में (निषसत्थ) प्रवेश कर, तू (नृचक्षाः) मानवशरीर का पोषणकर्ता है। (यद्) यद्यपि (वयम्) हम मनुष्यगण (ते+व्रतानि) तेरे नियमों को (प्रमिनाम) तोड़ते हैं तथापि (सः) वह तू (वस्यः) श्रेष्ठ (नः) हम जनों को (सुसखा) अच्छे मित्र के समान (मृळ) सुख ही देता है ॥९॥
भावार्थभाषाः - भाव इसका विस्पष्ट है। अन्न ही हमारे शरीर का पोषक है, इसमें सन्देह नहीं। वह हमारे प्रत्येक अङ्ग में जाकर पोषण करता है। अन्न के व्रतों को हम लोग भग्न करते हैं। इसका भाव यह है कि नियमपूर्वक शक्ति के अनुसार भोजन नहीं करते। कभी-२ देखा गया है कि अतिशय भोजन से तत्काल आदमी मर गया है। अतिभोजन से अनेक रोग उत्पन्न होते हैं। स्वल्प भोजन सदा हितकारी होता है ॥९॥
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शिव शंकर शर्मा

पुनस्तमर्थमाह।

पदार्थान्वयभाषाः - हे सोमदेव ! नोऽस्माकम्। तन्वः=शरीरस्य। त्वं हि। गोपाः=रक्षकः। अतस्त्वम्। गात्रे गात्रे=सर्वेष्वङ्गेषु। निषसत्थ=निषीद। यत्=यद्यपि। ते व्रतानि वयम्। प्रमिनाम=हिंस्मः। तथापि स त्वम्। वस्यः=श्रेष्ठान्। नोऽस्मान्। सुसखेव। मृळ=सुखयस्येव ॥९॥