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आ बु॒न्दं वृ॑त्र॒हा द॑दे जा॒तः पृ॑च्छ॒द्वि मा॒तर॑म् । क उ॒ग्राः के ह॑ शृण्विरे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā bundaṁ vṛtrahā dade jātaḥ pṛcchad vi mātaram | ka ugrāḥ ke ha śṛṇvire ||

पद पाठ

आ । बु॒न्दम् । वृ॒त्र॒ऽहा । द॒दे॒ । जा॒तः । पृ॒च्छ॒त् । वि । मा॒तर॑म् । के । उ॒ग्राः । के । ह॒ । शृ॒ण्वि॒रे॒ ॥ ८.४५.४

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:45» मन्त्र:4 | अष्टक:6» अध्याय:3» वर्ग:42» मन्त्र:4 | मण्डल:8» अनुवाक:6» मन्त्र:4


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शिव शंकर शर्मा

सम्प्रति इस सूक्त से जीव-धर्म दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (ये) जो मानव (आ) अच्छे प्रकार (घ) सिद्धान्त निश्चित करके अग्निहोत्र कर्म के लिये (अग्निम्+इन्धते) अग्नि को प्रज्वलित करते हैं और जो अतिथियों, दीनों तथा रोगी प्रभृतियों के लिये (आनुषक्) प्रेमपूर्वक (बर्हिः) कुशासन (स्तृणन्ति) बिछाते हैं और (येषाम्) जिनका (इन्द्रः) आत्मा (युवा) युवा अर्थात् कार्य्य करने में समर्थ और (सखा) मित्र है और जिनका आत्मा अपने वश में और ईश्वराभिमुख है। दुष्टाचारी दुर्व्यसनी नहीं। वे ही धन्य हैं ॥१॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यमात्र को उचित है कि वह प्रतिदिन अग्निहोत्र करे और अतिथिसेवा के लिये कभी मुख न मोड़े और अपने आत्मा को दृढ़ विश्वासी और मित्र बना रक्खे। आत्मा को कभी उच्छृङ्खल न बनावे ॥१॥
टिप्पणी: इन्द्र=यह नाम जीवात्मा का भी है। इन्द्रिय शब्द ही इसका प्रमाण है। इस सूक्त को आद्योपान्त प्रथम पढ़िये तब इसका आशय प्रतीत होगा। इस सूक्त में इन्द्र और उसकी माता का परस्पर सम्वाद भी कहा गया है। एक बात यह भी स्मरणीय है कि ईश्वर, राजा, सूर्य्य आदि जब इन्द्र शब्द के अर्थ होते हैं, तब जिस प्रकार के शब्द पर्य्याय और हन्तव्य शत्रु आदि का वर्णन आता है। वैसे ही जीवप्रकरण में भी रहेंगे। हाँ, किञ्चिन्मात्र का भेद होगा वह भेद सूक्ष्म विवेक से विदित होगा ॥१॥
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शिव शंकर शर्मा

सम्प्रत्यनेन सूक्तेन जीवधर्मान् दृश्यति।

पदार्थान्वयभाषाः - ये मानवाः। आसमन्तात्। घ=निश्चयेन। अग्निहोत्राय। अग्निम्। इन्धते=दीपयन्ति। ये च। आनुषग्=सप्रेम। अतिथिभ्यः। बर्हिरासनम्। स्तृणन्ति=आच्छादयन्ति। स्तृञ् आच्छादने। येषाञ्च। इन्द्रो जीवात्मा युवा=कार्य्ये शक्तः। सखा=मित्रभूतोऽस्ति। विप्रोऽस्ति। त एव धन्या इति शेषः ॥१॥