आ घा॒ ये अ॒ग्निमि॑न्ध॒ते स्तृ॒णन्ति॑ ब॒र्हिरा॑नु॒षक् । येषा॒मिन्द्रो॒ युवा॒ सखा॑ ॥
अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
ā ghā ye agnim indhate stṛṇanti barhir ānuṣak | yeṣām indro yuvā sakhā ||
पद पाठ
आ । घ॒ । ये । अ॒ग्निम् । इ॒न्ध॒ते । स्तृ॒णन्ति॑ । ब॒र्हिः । आ॒नु॒ष॒क् । येषा॑म् । इन्द्रः॑ । युवा॑ । सखा॑ ॥ ८.४५.१
ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:45» मन्त्र:1
| अष्टक:6» अध्याय:3» वर्ग:42» मन्त्र:1
| मण्डल:8» अनुवाक:6» मन्त्र:1
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शिव शंकर शर्मा
पदार्थान्वयभाषाः - (सन्त्य) हे सबमें विद्यमान साधो (अग्ने) परमात्मन् ! (अयम्) यह मनुष्यसमाज, जो आपसे विमुख हो रहा है, (त्वे+अपि) आपकी ही ओर (भूतु) होवे और आपका ही (जरिता) स्तुतिकर्ता होवे। (पावक) हे परमपवित्र देव ! (तस्मै) उस जन-समाज को (मृळय) सुखी बनाओ ॥२८॥
भावार्थभाषाः - ईश्वर-विमुख मनुष्य-समाज को देख विद्वान् को प्रयत्न करना चाहिये कि लोग उच्छृङ्खल, नास्तिक और उपद्रवकारी न होने पावें, क्योंकि उनसे जगत् की बड़ी हानि होती है। जैसे राजनियमों को कार्य्य में लाने के लिये प्रथम अनेक उद्योग करने पड़ते हैं, तद्वत् धार्मिक नियमों को भी ॥२८॥
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शिव शंकर शर्मा
पदार्थान्वयभाषाः - हे सन्त्य ! साधो सर्वत्र विद्यमान अग्ने सर्वगतदेव ! अयं मनुष्यः। त्वे अपि=त्वदभिमुखीनः। भूतु=भवतु। तथा तवैव जरिता स्तोताऽपि भवतु। हे पावक=परमपवित्र ! तस्मै जनाय। मृळय=सुखय=सुखीकुरु ॥२८॥