पदार्थान्वयभाषाः - हे महान् देव ! (उग्रस्य) दुष्टजनों के प्रति भयङ्कर (तव) तेरी (सख्ये) मित्रता और आज्ञा में वर्तमान हम उपासकगण (मा+भेम) किन्हीं अन्यायकारी वा पापी आदि अधम जनों से न डरें। तथा (मा+श्रमिष्म) किसी उत्तम कार्य में श्रान्त और स्थगित न होवें अथवा किसी दुष्ट से पीड़ित न होवें। हे भगवन् ! (वृष्णः) इस संसार में समस्त कामनाओं की वर्षा करनेवाले (ते) तेरे (कृतम्) सृष्टि आदि कर्म (महत्) महाश्चर्य्यजनक हैं और (अभिचक्ष्यम्) सर्वतो दर्शनीय और प्रख्यापनीय हैं। तथा हे भगवन् ! अपने आत्मा को (तुर्वशम्) तेरे वशीभूत और (यदुम्) तेरे अभिमुखीन (पश्येम) हम देखें। अर्थात् सदा हम आज्ञा में स्थित रहें, यह मेरी प्रार्थना स्वीकृत हो ॥७॥
भावार्थभाषाः - हम क्यों डरते हैं ? उत्तर−आन्तरिक दुर्बलता के कारण। जिसका आत्मा दुर्बल है, वह सबसे डरता है। असत्यता, मिथ्याव्यवहार, स्वेच्छाचारित्व, कदाचार, राजनियमों का पालन न करना और ईश्वरीय आज्ञाओं का उल्लङ्घन, इस प्रकार के विकर्म मनुष्यों को दुर्बल बना देते हैं। अबल पुरुष जगत् में स्थितिलाभ नहीं करते। केवल धन से, राज्य से, शरीर से, जन से, सेनादि बल से यह आत्मा बलिष्ठ नहीं होता, किन्तु एक ही सम्यगनुष्ठित सत्य से यह आत्मा महान् बलवान् होता है। विदेशी गैलेलियो और साक्रेटीज आदि विद्वान् और स्वदेशी युधिष्ठिर, बुद्ध आदि महात्मा सत्य ही से महाबली थे। जिनके नाम ही सम्प्रति इस भूमि को पवित्र कर रहे हैं। हे मनुष्यो ! सत्यव्रत पालकर निर्भय होओ। अतः वेद में हम न डरें, इत्यादि प्रार्थना होती है। और भी−हे मेधाविजनो ! ईश्वर का जो यह जगद्रूप कर्म है, इसका माहात्म्य मनुष्यों को समझाओ, क्योंकि यह महाश्चर्य्य और प्रशंसनीय है और इस आत्मा को भी उसके अधीन कर उसी का यश गाओ और विस्तार करो, इत्यादि शिक्षा इससे होती है ॥७॥