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यथा॑ गौ॒रो अ॒पा कृ॒तं तृष्य॒न्नेत्यवेरि॑णम् । आ॒पि॒त्वे न॑: प्रपि॒त्वे तूय॒मा ग॑हि॒ कण्वे॑षु॒ सु सचा॒ पिब॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yathā gauro apā kṛtaṁ tṛṣyann ety averiṇam | āpitve naḥ prapitve tūyam ā gahi kaṇveṣu su sacā piba ||

पद पाठ

यथा॑ । गौ॒रः । अ॒पा । कृ॒तम् । तृष्य॑न् । एति॑ । अव॑ । इरि॑णम् । आ॒ऽपि॒त्वे । नः॒ । प्र॒ऽपि॒त्वे । तूय॑म् । आ । ग॒हि॒ । कण्वे॑षु । सु । सचा॑ । पिब॑ ॥ ८.४.३

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:4» मन्त्र:3 | अष्टक:5» अध्याय:7» वर्ग:30» मन्त्र:3 | मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:3


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शिव शंकर शर्मा

इससे अनुग्रह के लिये इन्द्र की प्रार्थना की जाती है।

पदार्थान्वयभाषाः - (यथा) जैसे (गौरः) मौर मृगगवय (तृष्यन्) पिपासित होकर (अपा) जलों से (कृतम्) परिपूर्ण (इरिणम्) जलाशय को (अवैति) जानता है और जानकर वहाँ पहुँचता है। वैसा ही तेरे साथ (आपि१त्वे) बन्धुत्व (प्रपित्वे) प्राप्त होने पर अथवा (आपित्वे) प्रातःकाल और (प्रपित्वे) सायंकाल (नः) हम ग्रन्थरचयिता मनुष्यों की ओर (तूयम्) शीघ्र (आगहि) आ। तथा (कण्वेषु) ग्रन्थरचयिता हम लोगों के ऊपर (सचा) साथ ही (सु) अच्छे प्रकार (पिब) अनुग्रह कर ॥३॥
भावार्थभाषाः - ईश्वर हमारा पिता और माता है, अतः जैसे पुत्र प्रेम से माता पिता को बुलाता, वैसे ही उपासक भी यहाँ उसको बुलाता है। तृषार्त मृग व्याकुल हो जलाशय की ओर दौड़ता है, तथैव हे ईश ! हमारे क्लेशों को थोड़े करने के लिये आ। हम तेरे पुत्र रक्षणीय हैं ॥३॥
टिप्पणी: १−आपित्व=आपि शब्द बन्धु के अर्थ में बहुत प्रयुक्त हुआ है, परन्तु ‘प्रपित्व’ शब्द सायंकाल के अर्थ में प्रायः आता है, इस कारण साहचर्य से दोनों का अर्थ प्रातः और सायं भी किया गया है ॥ ८।१।२९ देखिये ॥३॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यथा) जिस प्रकार (गौरः) गौरमृग (तृष्यन्) प्यासार्त हुआ (अपा, कृतं) जल से पूर्ण (इरिणं) सरोवर के अभिमुख (अवैति) जाता है, इसी प्रकार (नः, आपित्वे, प्रपित्वे) हमारे साथ सम्बन्ध प्राप्त होने पर (तूयं, आगहि) शीघ्र आइये और (कण्वेषु) विद्वानों के मध्य में आकर (सचा) साथ-साथ (सु) भले प्रकार (पिब) अपने भाग का पान कीजिये ॥३॥
भावार्थभाषाः - हे ऐश्वर्य्यसम्पन्न तथा ऐश्वर्य्य के दाता कर्मयोगिन् ! जिस प्रकार पिपासार्त मृग शीघ्रता से जलाशय को प्राप्त होता है, इसी प्रकार उत्कट इच्छा से आप हम लोगों को प्राप्त हों और विद्वानों के मध्य उत्तमोत्तम पदार्थ तथा सोमरस का सेवन करें ॥३॥
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शिव शंकर शर्मा

अनुग्रहायेन्द्रः प्रार्थ्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - गौरः=गौरमृगो गवयः। तृष्यन्=पिपासन्=तृषार्त्तः सन्। यथा=येन प्रकारेण। अपा=अद्भिर्जलैः। अत्र व्यत्ययेनैकवचनम्। कृतम्=पूर्णं कृतम्। इरिणम्=जलाशयम्। अवैति=जानाति। अभिमुखः सन् शीघ्रं गच्छति च। तथा। हे इन्द्र ! त्वमपि। आपित्वे=बन्धुत्वे। त्वया सह। प्रपित्वे=प्राप्ते सति। नः=अस्मान् ग्रन्थप्रणेतॄन्। तूयम्=शीघ्रम्। आगहि=आगच्छ=प्राप्नुहि। तथा। कण्वेषु=ग्रन्थप्रणेतृषु। सचा=सहैव। सु=सुष्ठु। पिब=अनुगृहाण ॥३॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यथा) येन प्रकारेण (गौरः) गौरमृगः (तृष्यन्) तृषितः सन् (अपा, कृतं) अद्भिः पूर्णं (इरिणं) तटाकादिकं (अवैति) अभिगच्छति तद्वदेव हि (नः, आपित्वे, प्रपित्वे) अस्माकं सम्बन्धे प्राप्ते (तूयं, आगहि) तूर्यमागच्छ (कण्वेषु) विद्वत्सु मध्य आगत्य (सचा) सह (सु) सुष्ठु रीत्या (पिब) दीयमानभागं सेवताम् ॥३॥