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अध्व॑र्यो द्रा॒वया॒ त्वं सोम॒मिन्द्र॑: पिपासति । उप॑ नू॒नं यु॑युजे॒ वृष॑णा॒ हरी॒ आ च॑ जगाम वृत्र॒हा ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

adhvaryo drāvayā tvaṁ somam indraḥ pipāsati | upa nūnaṁ yuyuje vṛṣaṇā harī ā ca jagāma vṛtrahā ||

पद पाठ

अध्व॑र्यो॒ इति॑ । द्रा॒वय॑ । त्वम् । सोम॑म् । इन्द्रः॑ । पि॒पा॒स॒ति॒ । उप॑ । नू॒नम् । यु॒यु॒जे॒ । वृष॑णा । हरी॒ इति॑ । आ । च॒ । ज॒गा॒म॒ । वृ॒त्र॒ऽहा ॥ ८.४.११

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:4» मन्त्र:11 | अष्टक:5» अध्याय:7» वर्ग:32» मन्त्र:1 | मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:11


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शिव शंकर शर्मा

पापरहित उपासक ईश्वर को पाता है, यह इससे दिखलाया जाता है।

पदार्थान्वयभाषाः - (अध्वर्यो) हे कर्मकाण्डनिपुण जन ! (त्वम्) आप (द्रावय) अपने समीप से पाप को दूर करो, क्योंकि (इन्द्रः) सर्वद्रष्टा महेश (सोमम्) शुद्ध पदार्थ को ही (पिपासति) उत्कट इच्छा से देखना चाहता है, क्योंकि ईश्वर पापी को देखना नहीं चाहता। जो इन्द्र (वृष्णा) परस्पर सुखों की वर्षाकारी और (हरी) अपने आकर्षण द्वारा हरणशील स्थावर जंगमात्मक द्विविध संसारों को (नूनम्) नियतरूप से (उप+युयुजे) स्व-स्व कार्य्य में अच्छे प्रकार लगाता है। जो इन्द्र (वृत्रहा) सर्वविघ्नहर्त्ता है और (आ+जगाम) इनमें आगत=व्यापक है, उस इन्द्र को यदि प्रसन्न करना चाहते हो तो प्रथम पापों को दूर करो ॥११॥
भावार्थभाषाः - सर्वगत सर्वद्रष्टा ईश्वर को जान पाप से निवृत्त हो और इस जगत् का परस्परोपकारित्व को देख उपकार में प्रवृत्त रहो ॥११॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अध्वर्यो) हे यज्ञपते ! (त्वम्, द्रावय) आप इन्द्र भाग को सिद्ध करें (इन्द्र) कर्मयोगी (सोमं, पिपासति) वह सोमरस सर्वदा पीना चाहता है (नूनम्) सम्भावना करते हैं कि (वृषणा) बलवान् (हरी) अश्वों को (उपयुयुजे) रथ में नियुक्त किया है (वृत्रहा) शत्रुओं का नाशक वह (आजगाम, च) आ ही गया है ॥११॥
भावार्थभाषाः - हे यज्ञपति=यजमान ! पूज्य कर्मयोगी सोमरस पान करने के लिये शीघ्र ही अश्वों के रथ में सवार होकर यज्ञस्थान को आ रहे हैं, सो आने से प्रथम ही सोमरस सिद्ध करके तैयार रखना चाहिये ॥११॥
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शिव शंकर शर्मा

अपाप ईशं प्राप्नोतीति दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः - हे अध्वर्यो=हे कर्मकाण्डनिपुण ! त्वम्। द्रावय=आत्मनः समीपात् पापानि दूरीकुरु। यतः। इन्द्रः=सर्वद्रष्टा प्रभुः। सोमम्=पवित्रमेव वस्तु। पिपासति=पातुं द्रष्टुमिच्छति। नहीशः पापिनं दिदृक्षते। अयमिन्द्रः। नूनम्=निश्चितमेवात्र न सन्देहः। वृषणा=वृषणौ=परस्परं वर्षाकारिणौ। हरी=परस्परहरणशीलौ=स्थावरजङ्गमात्मकौ संसारौ। युयुजे=स्वस्वकार्ये नियोजितवानस्ति। एवं सर्वपदार्थान् योजयित्वा। स्वयं वृत्रहा=सर्वविघ्नप्रहर्ता इन्द्रः। आजगाम च=तस्मिन् तस्मिन् वस्तुनि आगतवान्=व्याप्तवान् वर्तते। अतो हे अध्वर्यो ! पापमपाकुरु ॥११॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अध्वर्यो) हे यज्ञपते ! (त्वम्, द्रावय) इन्द्रभागं साधयत्वम् (इन्द्रः) कर्मयोगी सः (सोमं) सोमरसं (पिपासति) सर्वदा पातुमिच्छति (नूनं) नूनं सम्भावयामो यत् (वृषणा) पुष्टौ (हरी) अश्वौ (उपयुयुजे) रथेन योजितवान् (वृत्रहा) शत्रूणां हन्ता सः (आजगाम च) आगतवानेव ॥११॥