आ शर्म॒ पर्व॑तानां वृणी॒महे॑ न॒दीना॑म् । आ विष्णो॑: सचा॒भुव॑: ॥
अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
ā śarma parvatānāṁ vṛṇīmahe nadīnām | ā viṣṇoḥ sacābhuvaḥ ||
पद पाठ
आ । शर्म॑ । पर्व॑तानाम् । वृ॒णी॒महे॑ । न॒दीना॑म् । आ । विष्णोः॑ । स॒चा॒ऽभुवः॑ ॥ ८.३१.१०
ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:31» मन्त्र:10
| अष्टक:6» अध्याय:2» वर्ग:39» मन्त्र:5
| मण्डल:8» अनुवाक:5» मन्त्र:10
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शिव शंकर शर्मा
पदार्थान्वयभाषाः - (पर्वतानाम्) हिमालय आदि पर्वतों के निवासियों का अथवा पर्वतों का जो (शर्म) सुख है और (नदीनाम्) नदीतटनिवासियों का या नदियों का जो सुख है, उस शर्म=कल्याण को (सचाभुवः) सबके साथ होनेवाले सर्वव्यापी (विष्णोः) परमात्मा के निकट (आ+वृणीमहे) माँगते हैं ॥१०॥
भावार्थभाषाः - द्रष्टव्य−प्रत्येक मनुष्य को उचित है कि वह ईश्वर की परम विभूतियों को देखे, जाने, विचारे, पृथिवी पर पर्वत कैसा विस्तृत सुगठित और वृक्षादिकों से सुशोभायमान प्रतीत होता है, नदी का जल कितना जीव-हितकारी है, नदी के तट सदा शीतल और घासादि से युक्त रहते हैं, इसी प्रकार इस पृथिवी पर शतशः पदार्थ द्रष्टव्य हैं। इन्हें देख इनसे गुण ग्रहण करना चाहिये, इति शम् ॥१०॥
टिप्पणी: आ शर्म पर्वतानामोतापां वृणीमहे। द्यावाक्षामारे अस्मद्रपस्कृतम् ॥ ऋ० ८।१८।१६॥
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शिव शंकर शर्मा
पदार्थान्वयभाषाः - पर्वतानाम् हिमालयादिपर्वतनिवासिनाम् यद्वा हिमालयादीनामेव। नदीनाञ्च नदीतटनिवासिनां यद्वा नदीनामेव। यत् शर्मसुखं फलादिभिर्जायते। तत् शर्म कल्याणम् वयमुपासकाः। आवृणीमहे याचामहे। पुनः। सचाभुवः सचा सर्वैः पदार्थैः सह भवतीति सचाभूः सहभूः सर्वव्यापी। तस्य विष्णोः सर्वगतस्य परमात्मनो निकटे। शर्म आवृणीमहे ॥१०॥