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आ॒त्मा पि॒तुस्त॒नूर्वास॑ ओजो॒दा अ॒भ्यञ्ज॑नम् । तु॒रीय॒मिद्रोहि॑तस्य॒ पाक॑स्थामानं भो॒जं दा॒तार॑मब्रवम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ātmā pitus tanūr vāsa ojodā abhyañjanam | turīyam id rohitasya pākasthāmānam bhojaṁ dātāram abravam ||

पद पाठ

आ॒त्मा । पि॒तुः । त॒नूः । वासः॑ । ओ॒जः॒ऽदाः । अ॒भि॒ऽअञ्ज॑नम् । तु॒रीय॑म् । इत् । रोहि॑तस्य । पाक॑ऽस्थामानम् । भो॒जम् । दा॒तार॑म् । अ॒ब्र॒व॒म् ॥ ८.३.२४

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:3» मन्त्र:24 | अष्टक:5» अध्याय:7» वर्ग:29» मन्त्र:4 | मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:24


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शिव शंकर शर्मा

फिर उसी को दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - यह मेरा (आत्मा) आत्मा (पितुः) मेरे पिता और परमात्मा के गुणों का (तनूः) विस्तार करनेवाला है। पुनः (वासः) इस जगत् में वास अर्थात् प्रतिष्ठा देनेवाला है। पुनः (अभ्यञ्जनम्) विस्पष्टरूप से (ओजोदाः) बलदाता है। ऐसे (पाकस्थामानम्) इस शरीरी जीव की (अब्रवम्) मैं प्रशंसा करता हूँ। पुनः वह कैसा है (तुरीयम्+इत्) संख्या में चतुर्थ है, क्योंकि प्रथम शरीर, दूसरा इन्द्रियगण, तीसरा मन, चौथा आत्मा। पुनः (रोहितस्य+दातारम्) लोहितवर्ण मनरूप अश्व को देनेवाला। पुनः (भोजम्) विविध भोगों को भुगानेवाला है ॥२४॥
भावार्थभाषाः - सर्व शास्त्रों की यह शिक्षा है कि प्रथम आत्मतत्त्व को अच्छे प्रकार जानो। आत्मा शरीर से पृथक् एक वस्तु है या नहीं है, इस विवाद को छोड़कर इससे तुमको क्या-क्या लाभ पहुँच सकता है और वशीभूत आत्मा से जगत् में तुम कितने कार्य कर सकते हो, इसको ही प्रथम विचारो। इस में अद्भुत शक्ति है, जिसके द्वारा तुमको सर्व धन की प्राप्ति हो सकती है। वास्तव में यही चिन्तामणि, कल्पद्रुम और अमृत है, इसको जो योग्य काम में लगाते हैं। वे ही ऋषि, मुनि, कवि, आचार्य्य, ग्रन्थकर्त्ता, नूतन-२ विद्याविष्कर्ता होते हैं। निश्चय वे मनुष्यरूप में पशु हैं, जो इन्द्रियसहित आत्मा का माहात्म्य नहीं जानते हैं। जो अपने कुल और परमात्मा की कीर्त्ति को बढ़ाता, सत्य की स्थापना करता, ओजस्वी होता और ज्ञान-विज्ञान का विस्तार करता, वही आत्मा है। सूक्त के अन्त में आत्मगुणों को प्रकाशित करता हुआ वेद सिखलाता है कि हे मनुष्यो ! ईश ने तुमको सर्व गुणों का आकर आत्मा दिया है। इसी से तुम्हारे सर्व कार्य सिद्ध होंगे, यह निश्चय जानो। इति ॥२४॥
टिप्पणी: यह अष्टम मण्डल का तृतीय सूक्त और उन्तीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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आर्यमुनि

अब उपसंहार में पिता से ब्रह्मविद्या प्राप्त किये हुए कर्मयोगी का स्तवन कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - जो कर्मयोगी (पितुः, आत्मा, तनूः) पिता ही की आत्मा तथा शरीर है (वासः) वस्त्र के समान अभिरक्षक तथा (ओजोदाः) बलों का दाता है (अभ्यञ्जनं) सब ओर से आत्मा के शोधक (तुरीयं, इत्) शत्रुओं के हिंसक (रोहितस्य, दातारं) रोहिताश्व के देनेवाले (भोजं) उत्कृष्ट पदार्थों के भोक्ता (पाकस्थामानं) पक्वबलवाले कर्मयोगी की मैं (अब्रवं) स्तुति करता हूँ ॥२४॥
भावार्थभाषाः - जिस कर्मयोगी ने अपने पिता से ब्रह्मविद्या तथा कर्मयोगविद्या का अध्ययन किया है, वह ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ होता है, या यों कहो कि वह मानो पिता के शरीर का ही अङ्ग है, जैसा कि धर्मशास्त्र में भी लिखा है कि “आत्मा वै जायते पुत्रः”=अपना आत्मा ही पुत्ररूप से उत्पन्न होता है, इस वाक्य के अनुसार पुत्र पिता का आत्मारूप प्रतिनिधि है और इसी भाव को मनु० ३।३ en में इस प्रकार वर्णन किया है कि “तं प्रतीतं स्वधर्मेण ब्रह्मदायहरं पितुः”=जो ब्रह्मविद्या के चमत्कार से प्रसिद्ध और जिसने अपने पिता से ही वेदरूप पैतृक सम्पत्ति को लाभ किया है, उस स्नातक का गोदान से सत्कार करे। इस प्रकार ब्रह्मविद्याविशिष्ट उस स्नातक के महत्त्व का इस मन्त्र में वर्णन है, जिसने अपने पिता के गुरुकुल में ही ब्रह्मविद्या का अध्ययन किया है ॥२४॥ यह तीसरा सूक्त और उन्तीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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शिव शंकर शर्मा

पुनस्तमेव दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः - अयं ममात्मा। पितुस्तनूः=मम जनकस्य परमात्मनो वा गुणान् तनोति विस्तारयति यः सः। पुनः। वासः=वासयिता=जगति प्रतिष्ठापयिता। पुनः। अभ्यञ्जनम्=अभिव्यक्तं यथा तथा। ओजोदाः= महाबलप्रदाता। ईदृशं पाकस्थामानम्=शरीरिणं जीवम्। अहमुपासकः। अब्रवम्=ब्रवीमि स्तौमि। कीदृशम्। तुरीयम्=चतुर्थकम्। इदेव। एकं शरीरम्। द्वितीयं कर्मज्ञानेन्द्रियम्। तृतीयं मनः। चतुर्थ आत्मा। अतस्तुरीयविशेषणम्। पुनः। रोहितस्य=रोहितनाम्नो मनसः। दातारम्। पुनः। भोजम्=नानाभोगानां भोजयितारम् ॥२४॥
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आर्यमुनि

अथोपसंहारे पितुः ब्रह्मदायहरः कर्मयोगी स्तूयते।

पदार्थान्वयभाषाः - यः कर्मयोगी (पितुः, आत्मा, तनूः) जनकस्य आत्मैव तनूरेव (वासः) वास इव रक्षकः (ओजोदाः) बलोत्पादकः (अभ्यञ्जनं) अभितः आत्मनः शोधकम् (तुरीयं, इत्) शत्रूणां हिंसितारं (रोहितस्य, दातारं) रोहिताश्वस्य दातारं (भोजं) उत्कृष्टपदार्थानां भोक्तारं (पाकस्थामानं) पक्वबलं कर्मयोगिणं (अब्रवं) प्रार्थये ॥२४॥ इति तृतीयं सूक्तमेकोनत्रिंशत्तमो वर्गश्च समाप्तः ॥