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निरि॑न्द्र बृह॒तीभ्यो॑ वृ॒त्रं धनु॑भ्यो अस्फुरः । निरर्बु॑दस्य॒ मृग॑यस्य मा॒यिनो॒ निः पर्व॑तस्य॒ गा आ॑जः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

nir indra bṛhatībhyo vṛtraṁ dhanubhyo asphuraḥ | nir arbudasya mṛgayasya māyino niḥ parvatasya gā ājaḥ ||

पद पाठ

निः । इ॒न्द्र॒ । बृ॒ह॒तीभ्यः॑ । वृ॒त्रम् । धनु॑ऽभ्यः । अ॒स्फु॒रः॒ । निः । अर्बु॑दस्य । मृग॑यस्य । मा॒यिनः॑ । निः । पर्व॑तस्य । गाः । आ॒जः॒ ॥ ८.३.१९

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:3» मन्त्र:19 | अष्टक:5» अध्याय:7» वर्ग:28» मन्त्र:4 | मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:19


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शिव शंकर शर्मा

इस ऋचा से परमात्मा का न्याय दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! तू (बृहतीभ्यः) महान् दूरस्थ (धनुभ्यः) निर्जन स्थानों से भी (वृत्रम्) चोर लम्पट इत्यादिकों को (निः+अस्फुरः) अतिशय नष्ट कर देता है। पुनः (अर्बुदस्य) प्रजापीड़क जन की (गाः) गायें, वाणियाँ, धन, क्षेत्र आदि सब पदार्थों को (निः+आजः) बहुत दूर फेंक देता है और (मृगयस्य) दुष्टाशय मनुष्यों की व मारनेवाले व्याधों की (मायिनः) कपटी पुरुषों की तथा (पर्वतस्य) पर्वतसमान विघ्नोत्पादक डाकू आदिकों की गाय आदि वस्तुओं को दूर फेंक देता है। ऐसे तुझको हम गाते हैं ॥१९॥
भावार्थभाषाः - इस महादेव का न्यायमार्ग सर्वत्र फैलाया है। उसको अल्पज्ञ नहीं देखते हैं। इसने कितने प्रकार के उत्पत्तिस्थान रचे हैं। कितने प्रकार के प्राणी हैं, मनुष्यों में भी सब तुल्य नहीं। हे विद्वानो ! ईश के न्यायालयों को देखो। हे क्षुद्रमानवो ! उससे भय करो ॥१९॥
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आर्यमुनि

अब शस्त्रों के निर्माण का फल कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे कर्मयोगिन् ! (बृहतीभ्यः, धनुभ्यः) बड़े-बड़े शस्त्रों से (वृत्रं) दुष्ट दस्यु को (निरस्फुरः) आपने नष्ट किया (अर्बुदस्य) मेघ के समान (मायिनः) मायावाले (मृगयस्य) हिंसक को भी (निः) नष्ट किया तथा (पर्वतस्य) पर्वत के ऊपर के (गाः) पृथिवी-प्रदेशों को (निराजः) निकाल दिया ॥१९॥
भावार्थभाषाः - याज्ञिक लोगों का कथन है कि हे कर्मयोगिन् ! आपने उत्तमोत्तम शस्त्र-अस्त्रादिकों के बल से ही बड़े-बड़े दस्युओं को अपने वशीभूत किया, जो अराजकता फैलाते, श्रेष्ठ पुरुषों का अपमान करते और याज्ञिक लोगों के यज्ञ में विघ्नकारक थे। इन्हीं शस्त्रों के प्रभाव से आपने बड़े-बड़े हिंसक पशुओं का हनन करके प्रजा को सुरक्षित किया और इन्हीं शस्त्रास्त्रों के प्रयोग द्वारा पर्वतीय प्रदेशों को विजय किया, इसलिये प्रत्येक पुरुष को शस्त्रास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करके युद्धविद्या में कुशल होना चाहिये ॥१९॥
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शिव शंकर शर्मा

अनया परमात्मनो न्यायं दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! त्वम्। बृहतीभ्यः=बृहद्भ्योऽत्र लिङ्गव्यत्ययः। धनुभ्यः=निर्जनप्रदेशेभ्योऽपि आनीय। वृत्रम्=चौरादिकम्। निरस्फुरः=निर्हंसि। स्फुरतिर्वधकर्मा। तथा। अर्बुदस्य=प्रजापीडकस्य। गाः=वाणीर्गोधनानि क्षेत्राणीत्येवं विधानि सर्वाणि वस्तूनि। निराजः=नितरां दूरेऽजसि क्षिपसि। तथा च। मृगयस्य=दुष्टाशयस्य मनुष्यव्याधस्य। मायिनः=कपटयुक्तस्य। पुनः। पर्वतस्य=पर्वतस्येव विघ्नोत्पादकस्य। गाः। निराजः=नितरां दूरे क्षिपसि विध्वंसयसीत्यर्थः। ईदृशं त्वामेव वयं गायामः ॥१९॥
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आर्यमुनि

अथ शस्त्रोपयोगिता कथ्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे कर्मयोगिन् ! (बृहतीभ्यः, धनुभ्यः) महद्भ्यः शस्त्रेभ्यः (वृत्रं) वारयितारं (निरस्फुरः) निरवधीः (अर्बुदस्य) मेघमिव (मायिनः) मायावन्तं (मृगयस्य) हिंसकं (निः) निरवधीः (पर्वतस्य) पर्वतसम्बन्धिनीः (गाः) पृथिवीः (निराजः) निरयमयः ॥१९॥