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यु॒क्ष्वा हि वृ॑त्रहन्तम॒ हरी॑ इन्द्र परा॒वत॑: । अ॒र्वा॒ची॒नो म॑घव॒न्त्सोम॑पीतय उ॒ग्र ऋ॒ष्वेभि॒रा ग॑हि ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yukṣvā hi vṛtrahantama harī indra parāvataḥ | arvācīno maghavan somapītaya ugra ṛṣvebhir ā gahi ||

पद पाठ

यु॒क्ष्व । हि । वृ॒त्र॒ह॒न्ऽत॒म॒ । हरी॒ इति॑ । इ॒न्द्र॒ । प॒रा॒ऽवतः॑ । अ॒र्वा॒ची॒नः । म॒घ॒ऽव॒न् । सोम॑ऽपीतये । उ॒ग्रः । ऋ॒ष्वेभिः॑ । आ । ग॒हि॒ ॥ ८.३.१७

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:3» मन्त्र:17 | अष्टक:5» अध्याय:7» वर्ग:28» मन्त्र:2 | मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:17


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शिव शंकर शर्मा

इन्द्र ही सेव्य है, क्योंकि वह सर्वविघ्नविनाशक है, यह शिक्षा इससे देते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (वृत्रहन्तम) हे अतिशय विघ्नविनाशक (इन्द्र) परमात्मन् ! तू कृपा करके (हरी) परस्पर हरणशील स्थावर जङ्गम पदार्थों को (युक्ष्व+ही) स्व-स्व कार्य में अवश्य ही लगा। और (मघवन्) हे निखिलविज्ञानधनसम्पन्न ! (ऋष्वेभिः) दर्शनीय न्यायों से लोक में (उग्रः) उग्ररूप से प्रसिद्ध तू (सोमपीतये) सब पदार्थों पर अनुग्रह करने के लिये (अर्वाचीनः) हम लोगों की ओर (परावतः) दूर प्रदेश से भी (आगहि) आ ॥१७॥
भावार्थभाषाः - ईश्वर सर्वविघ्ननिवारण करता है, इसमें सन्देह नहीं। जो उसके नियमपालन करते हैं, उसकी आज्ञा का तिरस्कार कभी नहीं करते, भूतों के ऊपर दया दिखलाते हैं, उनका ही वह उद्धार करता है। इस हेतु हे मनुष्यो ! उसकी आज्ञा में विचरण करो ॥१७॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (वृत्रहन्तम) हे अतिशय शत्रुहनन करनेवाले (इन्द्र) कर्मयोगिन् ! (हरी) अश्वों को (युक्ष्व, हि) रथ में जोड़िये (परावतः) दूर देश से (अर्वाचीनः) हमारे अभिमुख (मघवन्) हे धनवन् ! (उग्रः) भीम आप (ऋष्वेभिः) विद्वानों के साथ (सोमपीतये) सोमपान के लिये (आगहि) आवें ॥१७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में याज्ञिक लोगों की ओर से यह प्रार्थना है कि हे शत्रुओं का हनन करनेवाले, हे ऐश्वर्य्यशालिन् तथा हे भीमकर्मा कर्मयोगिन् ! आप अपने रथ पर सवार होकर विद्वानों के साथ सोमपान के लिये हमारे स्थान को प्राप्त हों, ताकि हम लोग आपका सत्कार करके अपना कर्त्तव्य पालन करें ॥१७॥
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शिव शंकर शर्मा

सर्वविघ्नविनाशकत्वादिन्द्र एव सेवनीय इति शिक्षते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! हे वृत्रहन्तम=अतिशयेन वृत्रान् विघ्नान् दुःखानि वा हन्तीति वृत्रहन्तमः। तत्सम्बोधने। हरी=परस्परहरणशीलौ स्थावरजङ्गमौ। स्वस्वकार्य्ये। युक्ष्व हि=नियोजयैव। तथा। हे मघवन् ! ऋष्वेभिः=सुशोभनैर्न्यायैर्लोकेषु। उग्रः=उग्रत्वेन प्रसिद्धस्त्वम्। सोमपीतये=सोमानां निखिलपदार्थानां पीतये अनुग्रहाय। अर्वाचीनोऽभिमुखो भूत्वा। परावतः=दूरदेशादपि। दूरनामैतत्। आगहि=आगच्छ ॥१७॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (वृत्रहन्तम) हे अतिशयेन शत्रुहन्तः (इन्द्र) परमैश्वर्य्यसम्पन्न ! (हरी) अश्वौ (युक्ष्वा, हि) रथेन योजय हि (परावतः) दूरात् (अर्वाचीनः) ममाभिमुखः सन् (मघवन्) हे धनवन् इन्द्र ! (उग्रः) भीमो भवान् (ऋष्वेभिः) विद्वद्भिः सह (सोमपीतये) सोमरसपानाय (आगहि) आयातु ॥१७॥