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कदु॑ स्तु॒वन्त॑ ऋतयन्त दे॒वत॒ ऋषि॒: को विप्र॑ ओहते । क॒दा हवं॑ मघवन्निन्द्र सुन्व॒तः कदु॑ स्तुव॒त आ ग॑मः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

kad u stuvanta ṛtayanta devata ṛṣiḥ ko vipra ohate | kadā havam maghavann indra sunvataḥ kad u stuvata ā gamaḥ ||

पद पाठ

कत् । ऊँ॒ इति॑ । स्तु॒वन्तः॑ । ऋ॒त॒ऽय॒न्त॒ । दे॒वता॑ । ऋषिः॑ । कः । विप्रः॑ । ओ॒ह॒ते॒ । क॒दा । हव॑म् । म॒घ॒व॒न् । इ॒न्द्र॒ । सु॒न्व॒तः । कत् । ऊँ॒ इति॑ । स्तु॒व॒तः । आ । ग॒मः॒ ॥ ८.३.१४

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:3» मन्त्र:14 | अष्टक:5» अध्याय:7» वर्ग:27» मन्त्र:4 | मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:14


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शिव शंकर शर्मा

ईश्वर के नियम सदा पालनीय हैं, यह शिक्षा इससे देते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! (स्तुवन्तः) तेरी स्तुति करते हुए (कदु) कौन मनुष्य (ऋतयन्तः) सत्य नियमों को पालते हैं, कोई नहीं। और (कः) कौन (देवता) दिव्यगुणसंयुक्त (ऋषिः) अतीन्द्रियद्रष्टा ऋषि और (विप्रः) मेधावीजन (ओहते) आपकी महिमा के विषय में तर्क-वितर्क करते हैं। आपकी स्तुति कौन कर सकता है। तथापि (मघवन्) हे महाधन सम्पन्न परमात्मन् ! (कदा) कब (सुन्वतः+हवम्) यज्ञपरायण मनुष्यों के निमन्त्रण को सुनकर सहायता के लिये आप आवेंगे और (कदु) कब (स्तुवतः) स्तुति करनेवाले ज्ञानी जनों के निमन्त्रण को सुन उनके निकट (आगमः) आवेंगे ॥१४॥
भावार्थभाषाः - हे भगवन् ! महान् जन भी आपके सर्व सत्य नियमों का पालन नहीं कर सकते। ऋषि और मेधावीजन भी आपकी तर्कना करने में असमर्थ हैं। तब हम लोग तो क्या हैं, तथापि आप स्वभाव से ही सुकर्मी और ज्ञानीजनों का उद्धार करते हैं, आपकी कृपा से वे कब सुखी होंगे, यह मैं पूछता हूँ ॥१४॥
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आर्यमुनि

अब अन्य प्रकार से प्रार्थना कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (कत्, उ, स्तुवन्तः) कौन स्तोता (देवता) देव आपके (ऋतयन्त) यज्ञ करने की इच्छा कर सके (कः) कौन (विप्रः) विद्वान् (ऋषिः) सूक्ष्मद्रष्टा (ओहते) आपको वहन कर सकता है (मघवन्, इन्द्र) हे धनवन् इन्द्र ! (सुन्वतः) आपका अर्चन करनेवाले पुरुष के (हवं) हव्य पदार्थों को (कदा) कब स्वीकार करेंगे (स्तुवतः) स्तुति करनेवाले के गृह को (कत्, उ) कब (आगमः) आवेंगे ॥१४॥
भावार्थभाषाः - कर्मयोगी से प्रार्थना, उसके यज्ञ, स्तुति और आह्वान करने को सभी पुरुष उत्कण्ठित रहते और यह चाहते हैं कि यह कर्मयोगी कब हमारी प्रार्थना को किस प्रकार स्वीकार करे, जिससे हम लोग भी उसकी कृपा से अभ्युदयसम्पन्न होकर इष्ट पदार्थों का भोग करें, हे कर्मयोगिन् ! आप याज्ञिक पुरुषों के हव्य पदार्थों को कब स्वीकार करेंगे अर्थात् यज्ञ का फल, जो ऐश्वर्य्यलाभ करना है, वह आप हमको शीघ्र प्राप्त कराएँ और स्तोता के गृह को पवित्र करें अर्थात् उसके गृह में सदा कुशल रहे, जिससे यज्ञसम्बन्धी कार्यों में विघ्न न हो, यह प्रार्थना है ॥१४॥
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शिव शंकर शर्मा

ईश्वरनियमाः सदा पालनीया इत्यनया शिक्षते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! स्तुवन्तः=तव स्तुतिं कुर्वन्तः। कदु=के जनाः। ऋतयन्तः=ऋतान् सत्यनियमान् पालयन्ति न कोऽपीत्यर्थः। कः। देवता=दिव्यगुणयुक्तः। ऋषिः=अतीन्द्रियार्थद्रष्टा। विप्रः=मेधावी च। ओहते=तव महिमानं वितर्कते। त्वां स्तोतुं शक्नोति न कोऽपि। हे इन्द्र ! कदा=कस्मिन्काले। सुन्वतः=शुभकर्माणि वितन्वतः कर्मपरायणस्य। हवम्=आह्वानं प्रति। त्वमागमः। कदु=कदा च। स्तुवतः=केवलं स्तुतिं कुर्वतः ज्ञानिनो हवं प्रति। हे मघवन् ! त्वमागमः=आगमिष्यसि ॥१४॥
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आर्यमुनि

अथ प्रकारान्तरेण स एव प्रार्थ्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (कत्, उ, स्तुवन्तः) के हि स्तोतारः (देवता, ऋतयन्त) देवं त्वां प्रति ऋतं यज्ञं कर्तुमैच्छन् (कः) कश्च (विप्रः) विद्वान् (ऋषिः) सूक्ष्मद्रष्टा (ओहते) त्वां वोढुं शक्नुयात् (मघवन्, इन्द्र) हे धनवन् इन्द्र ! (सुन्वतः) पूजयतः (हवं) हव्यपदार्थं (कदा) कदा स्वीकरोषि (स्तुवतः) स्तुतिं कुर्वतो गृहं (कत्, उ) कदा हि (आगमः) आगच्छसि ॥१४॥