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श॒ग्धी नो॑ अ॒स्य यद्ध॑ पौ॒रमावि॑थ॒ धिय॑ इन्द्र॒ सिषा॑सतः । श॒ग्धि यथा॒ रुश॑मं॒ श्याव॑कं॒ कृप॒मिन्द्र॒ प्राव॒: स्व॑र्णरम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

śagdhī no asya yad dha pauram āvitha dhiya indra siṣāsataḥ | śagdhi yathā ruśamaṁ śyāvakaṁ kṛpam indra prāvaḥ svarṇaram ||

पद पाठ

श॒ग्धि । नः॒ । अ॒स्य । यत् । ह॒ । पौ॒रम् । आवि॑थ । धियः॑ । इ॒न्द्र॒ । सिसा॑सतः । श॒ग्धि । यथा॑ । रुश॑मम् । श्याव॑कम् । कृप॑म् । इन्द्र॑ । प्र । आवः॑ । स्वः॑ऽनरम् ॥ ८.३.१२

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:3» मन्त्र:12 | अष्टक:5» अध्याय:7» वर्ग:27» मन्त्र:2 | मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:12


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शिव शंकर शर्मा

आत्मकल्याण के लिये प्रतिदिन परमात्मा ही प्रार्थनीय है, यह शिक्षा इससे देते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे भगवन् ! तू (नः) हमको सब शुभ कर्म में (शग्धि) समर्थ कर जिस हेतु (अस्य) हम उपासक तेरे ही हैं। पुनः जिस हेतु (धियः+सिषासतः) हम लोग मनुष्यों में शुभकर्म और विज्ञान फैलाते हैं, अतः तू हमारी सहायता कर और (यत्) जिस हेतु तू (पौरम्) अन्यान्य जनों के मनोरथ पूर्ण करनेवाले को (आविथ) साहाय्य करता है। पुनः (यथा) जिस प्रकार (रुशमम्) रोगियों को सुख पहुँचानेवाले चिकित्सक=वैद्य को (श्यावकम्) परदुःखहारी जन को (कृपम्) कृपालुजन को तथा (स्वर्णरम्) सुख पहुँचानेवाले अथवा ईश्वर की ओर ले जानेवाले को (प्रावः) सहायता देता है, वैसे ही हमारी इस आत्मा को भी (शग्धि) दृढ़ और शक्तिमान् कर ॥१२॥
भावार्थभाषाः - हे भगवन् ! तू स्वभावतः जगत् की रक्षा कर रहा है। तथा परोपकारी जनों को उन्नत बनाता है। अतः मुझे भी सर्व कर्म में साहाय्य दे ॥१२॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे कर्मयोगिन् ! (नः) हमारे सम्बन्धी (धियः, सिषासतः) कर्मों में लगे रहनेवाले (अस्य) इस यजमान को वह धन (शग्धि) दीजिये (यत्, ह) जिस धन से (पौरं, आविथ) पुरवासी जनसमुदाय की रक्षा करते हैं (इन्द्र) हे इन्द्र ! (यथा) जैसे (रुशमं) ऐश्वर्य्य से दीप्तिमान् (श्यावकं) दारिद्र्य से मलिन (कृपं) कार्यों में समर्थ (स्वर्णरं) सुखी नर की (प्रावः) रक्षा की, वैसे ही (शग्धि) मुझको भी समर्थ कीजिये ॥१२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में याज्ञिक लोगों की ओर से प्रार्थना है कि हे कर्मयोगिन् ! आप हमारे सम्बन्धी यजमान को, जो याज्ञिककर्मों में प्रवृत्त है, धन से सम्पन्न कीजिये, हे भगवन् ! जैसे कर्मों में प्रवृत्त दरिद्र पुरुष को धन देकर सुखी करते हो, वैसे ही आप हम लोगों सहित यजमान को भी समर्थ करें, जिससे वह उत्साहित होकर यज्ञसम्बन्धी कर्म करे-करावे ॥१२॥
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शिव शंकर शर्मा

आत्मकल्याणार्थं प्रतिदिनं परमात्मैव प्रार्थनीय इति शिक्षते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! त्वम्। नोऽस्मान्। शग्धि=सर्वस्मिन् शुभे कर्मणि समर्थान् कुरु। यतो वयम्। अस्य=तवैव स्मः। कीदृशानस्मान्। धियः=कर्माणि विज्ञानानि वा। मनुष्येषु। सिषासतः=संविभाजयतः। तथा। यद्=यतस्त्वम्। पौरम्=पूरयति विज्ञानद्रव्यादिपदार्थैर्मनुष्याणां मनोरथान् यः सः पुरुः पुरुरेव पौरस्तम्। आविथ=सहायतां ददासि। तथा। रुशमम्=रुग्णान् औषधैर्यः शमयति स रुशमस्तम्। रुशमं चिकित्सकम्। श्यावकम्=परदुःखहारिणम्। कृपम्=कृपयति दयते यस्तम्। कृपालुं पुरुषम्। स्वर्णरम्=स्वः सुखं नृणाति प्रापयतीति स्वर्णरस्तं सुखप्रदातारम्। यथा। प्रावः=सहायतां ददासि। तथा। ममात्मानमपि। त्वम्। शग्धि=समर्थं कुरु वा तस्मै विज्ञानं देहि ॥१२॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! (नः) अस्माकं सम्बन्धिनः (धियः, सिषासतः) कर्माणि संभजतः (अस्य) यजमानस्य तद्धनं (शग्धि) देहि (यत्, ह) येन हि (पौरं, आविथ) पुरे भवं जनसमुदायं रक्षितवान् (इन्द्र) हे इन्द्र ! (यथा) येन प्रकारेण (रुशमं) ऐश्वर्येण दीप्तिमन्तं (श्यावकं) दारिद्र्येण मलिनं (कृपं) सामर्थ्यवन्तं (स्वर्णरं) सुखिनं नरं च (प्रावः) रक्षितवान् तथा मामपि (शग्धि) शक्तं कुरु ॥१२॥