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श॒ग्धी न॑ इन्द्र॒ यत्त्वा॑ र॒यिं यामि॑ सु॒वीर्य॑म् । श॒ग्धि वाजा॑य प्रथ॒मं सिषा॑सते श॒ग्धि स्तोमा॑य पूर्व्य ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

śagdhī na indra yat tvā rayiṁ yāmi suvīryam | śagdhi vājāya prathamaṁ siṣāsate śagdhi stomāya pūrvya ||

पद पाठ

श॒ग्धि । नः॒ । इ॒न्द्र॒ । यत् । त्वा॒ । र॒यिम् । यामि॑ । सु॒ऽवीर्य॑म् । श॒ग्धि । वाजा॑य । प्र॒थ॒मम् । सिसा॑सते । श॒ग्धि । स्तोमा॑य । पू॒र्व्य॒ ॥ ८.३.११

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:3» मन्त्र:11 | अष्टक:5» अध्याय:7» वर्ग:27» मन्त्र:1 | मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:11


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शिव शंकर शर्मा

क्या प्रार्थना करनी चाहिये, यह शिक्षा देते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! हे सर्वप्रकाशक देव ! तू (नः) हम लोगों का (शग्धि) साहाय्य उस समय करो (यद्) जब (सुवीर्य्यम्) शोभनवीर्य्ययुक्त पुत्रादिक (रयिम्) धन (त्वाम्) तुझसे (यामि) माँगूँ पुनः (नः) हमको (प्रथमम्) प्रथम (शग्धि) सहायता दे, जब (वाजाय) विज्ञान के लिये तुझसे याचना करूँ पुनः (शग्धि) हमको साहाय्य प्रदान कर जब (सिषासते) परमोत्कृष्ट (स्तोमाय) स्तोत्र के लिये तुझसे याचना करूँ। (पूर्व्य) हे पूर्ण ! हे पुरातन ईश ! इन मनोरथों को तू पूर्ण कर ॥११॥
भावार्थभाषाः - ईश्वर के निकट तीन पदार्थ याचनीय हैं। इस लोक के लिये महाबलिष्ठ पुत्रादिक धन, परलोक के लिये सुविज्ञान और दोनों के लिये स्तुतिशक्ति, सत्काव्यशक्ति। प्रातः-सायं मन से उसके निकट पहुँचकर उसकी प्रार्थना करें और सम्पूर्ण दिन उसके साधन इकट्ठे करें, तब ही मनोरथ की सिद्धि हो सकती है ॥११॥
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आर्यमुनि

अब कर्मयोगी से धन की याचना करना कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! (यत्, रयिं) जिस धन की (सुवीर्यं, त्वा) सुन्दर वीर्यवाले आपसे (यामि) याचना करता हूँ (नः, शग्धि) वह हमको दीजिये (सिषासते) जो आपके अनुकूल चलना चाहता है, उसको (वाजाय) अन्न (प्रथमं) सबसे पहले (शग्धि) दीजिये (पूर्व्य) हे अग्रणी ! (स्तोमाय) स्तुतिकर्त्ता को (शग्धि) दीजिये ॥११॥
भावार्थभाषाः - इन्द्र=हे सब धनों के स्वामी कर्मयोगिन् ! हम लोग आपकी आज्ञापालन करते हुए आपसे याचना करते हैं कि आप हमें सब प्रकार का धन-धान्य देकर संतुष्ट करें, क्योंकि जो आपका अनुकूलगामी है, उसको सबसे प्रथम अन्नादि धन दीजिये अर्थात् कर्मयोगी का यह कर्तव्य है कि वह वैदिकमार्ग में चलने तथा चलानेवाली प्रजाओं को धनादि सकल आवश्यक पदार्थ देकर सर्वदा प्रसन्न रखे, जिससे उसके किसी राष्ट्रिय अङ्ग में न्यूनता न आवे ॥११॥
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शिव शंकर शर्मा

किं प्रार्थनीयमिति शिक्षते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! इन्धे दीपयति जगदिदमितीन्द्रः हे भगवन् ! त्वम्। नोऽस्मान्। शग्धि=शक्तान् कुरु। तदास्माकं साहाय्यं कुरु। यद्=यदा। अहम्। सुवीर्य्यम्=शोभनवीर्य्योपेतं पुत्रादिसहितम्। रयिम्=धनम्। त्वा=त्वाम्। यामि=याचामि याचे। अत्र वर्णलोपश्छान्दसः। पुनः। यदा। वाजाय=विज्ञानाय। त्वां याचे। तदा। शग्धि=प्रथमं साहाय्यं कुरु। तथा। सिषासते=सनितुं संभक्तुं दीनेभ्यो धनानि संविभाजयितुमिच्छते। स्तोमाय=स्तोत्राय। शग्धि। हे पूर्व्य=हे पूर्ण ! हे पुरातन ईश ! इमान् मनोरथान् पूरय ॥११॥
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आर्यमुनि

अथ कर्मयोगिसकाशात् धनं प्रार्थ्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! (यत्, रयिं) यादृशं धनं (सुवीर्यं, त्वा) सुष्ठु वीर्यवन्तं त्वां (यामि) याचामि (नः, शग्धि) तत्प्रयच्छ अस्मभ्यम् (सिषासते) संभक्तुमिच्छते (वाजाय) अन्नं (प्रथमं) सर्वेभ्यः पूर्वं (शग्धि) प्रयच्छ (पूर्व्य) हे अग्रणीः ! (स्तोमाय) स्वस्तोत्रे (शग्धि) प्रयच्छ ॥११॥