वरु॑णो मि॒त्रो अ॑र्य॒मा स्मद्रा॑तिषाचो अ॒ग्नय॑: । पत्नी॑वन्तो॒ वष॑ट्कृताः ॥
अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
varuṇo mitro aryamā smadrātiṣāco agnayaḥ | patnīvanto vaṣaṭkṛtāḥ ||
पद पाठ
वरु॑णः । मि॒त्रः । अ॒र्य॒मा । स्मद्रा॑तिऽसाचः । अ॒ग्नयः॑ । पत्नी॑ऽवन्तः । वष॑ट्ऽकृटाः ॥ ८.२८.२
ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:28» मन्त्र:2
| अष्टक:6» अध्याय:2» वर्ग:35» मन्त्र:2
| मण्डल:8» अनुवाक:4» मन्त्र:2
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शिव शंकर शर्मा
इन्द्रिय-स्वभाव दिखलाते हैं।
पदार्थान्वयभाषाः - (वरुणः) पाशभृत् और न्याय से दण्डविधाता मानवप्रतिनिधि सम्राट् (मित्रः) सबसे स्नेहकारी ब्राह्मणदल (अर्य्यमा) वैश्यवर्ग और (स्मद्रातिषाचः) शोभन विविध दानों से पोषक जो (अग्नयः) व्यापारपरायण इतरजन, वे सब (पत्नीवन्तः) अपनी-२ पत्नी के साथ मुझसे (वषट्कृताः) वषट् शब्द द्वारा सम्मानित हुए हैं, वे सम्प्रति मुझ पर प्रसन्न होवें, यह प्रार्थना है ॥२॥
भावार्थभाषाः - इससे भगवान् यह शिक्षा देते हैं कि जगत् के उपकार करनेवाले सबको आदरदृष्टि से देखो और यथायोग्य उनकी पूजा शुश्रूषा करो। यद्वा−प्रथम और अन्तिम ऋचा से विस्पष्टतया विदित होता है कि यह सब वर्णन इन्द्रियों का ही है, अतः यहाँ भी वरुण आदिकों का भी तत्परक ही अर्थ करना उचित है। (मित्र) हितकारी इन्द्रिय (वरुण) वशीकृतेन्द्रिय (अर्य्यमा) गमनशीलेन्द्रिय और (अग्नयः) अग्निसमान प्रचण्ड या उपकारी इन्द्रिय (पत्नीवान्) अपनी-२ शक्तिसहित जगत् के उपकारी होवें। इत्यादि ॥२॥
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शिव शंकर शर्मा
इन्द्रियस्वभावं दर्शयति।
पदार्थान्वयभाषाः - वरुणः=पाशभृद्=न्यायेन दण्डविधाता सम्राट्। मित्रः=ब्राह्मणः सर्वेषां स्नेहकारी। अर्य्यमा=वैश्यः। अपि च। स्मद्रातिषाचः=स्मद्भिः शोभनाभी रातिभिर्विविधदानैः, साचः=पोषकाः। ये अग्नयः=अङ्गनशीलाः=व्यापारपरायणा इतरे जनाः सन्ति। ते सर्वे। पत्नीवन्तः=स्वया स्वया पत्न्या सह। मया। वषट्कृताः=वषट्शब्देन आदृता बभूवुः। ते सम्प्रति मयि प्रसन्ना भवन्तु इति प्रार्थना ॥२॥