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आ वृ॑षस्व महामह म॒हे नृ॑तम॒ राध॑से । दृ॒ळ्हश्चि॑द्दृह्य मघवन्म॒घत्त॑ये ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā vṛṣasva mahāmaha mahe nṛtama rādhase | dṛḻhaś cid dṛhya maghavan maghattaye ||

पद पाठ

आ । वृ॒ष॒स्व॒ । म॒हा॒ऽम॒ह॒ । म॒हे । नृ॒ऽत॒म॒ । राध॑से । दृ॒ळ्हः । चि॒त् । दृ॒ह्य॒ । म॒घ॒ऽव॒न् । म॒घत्त॑ये ॥ ८.२४.१०

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:24» मन्त्र:10 | अष्टक:6» अध्याय:2» वर्ग:16» मन्त्र:5 | मण्डल:8» अनुवाक:4» मन्त्र:10


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शिव शंकर शर्मा

इस मन्त्र से उसका दान दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (महामह) हे परमपूज्य ! (नृतम) हे परम नायक ! (मघवन्) हे सर्वधनसम्पन्न ! (महे+राधसे) महान् अभ्युदय के लिये (आवृषस्व) अपनी सम्पत्तियाँ और ज्ञान इस जगत् में सींच और (मघत्तये) धनवृद्धि के लिये (दृढः+चित्) दृढ़ भी दुष्टों के नगरों का (दृह्य) विनाश कर ॥१०॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा सर्वधनसम्पन्न है और न्यायकर्त्ता है, अतः अन्यायी पुरुषों के धनों को वह छीन लेता है ॥१०॥
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शिव शंकर शर्मा

अनेन मन्त्रेण तस्य दानं दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः - हे महामह=परमपूज्य ! हे नृतम=नायकतम ! हे मघवन्=सर्वधन ! महे=महते। राधसे=अभ्युदयाय। आवृषस्व=सिञ्च। तथा। मघत्तये=धनलाभाय। दृढश्चित्=दृढान्यपि शत्रुपुराणि। दृह्य=जिघांस ॥१०॥