अग्ने॒ त्वं य॒शा अ॒स्या मि॒त्रावरु॑णा वह । ऋ॒तावा॑ना स॒म्राजा॑ पू॒तद॑क्षसा ॥
अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
agne tvaṁ yaśā asy ā mitrāvaruṇā vaha | ṛtāvānā samrājā pūtadakṣasā ||
पद पाठ
अग्ने॑ । त्वम् । य॒शाः । अ॒सि॒ । आ । मि॒त्रावरु॑णा । व॒ह॒ । ऋ॒तऽवा॑ना । स॒म्ऽराजा॑ । पू॒तऽद॑क्षसा ॥ ८.२३.३०
ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:23» मन्त्र:30
| अष्टक:6» अध्याय:2» वर्ग:14» मन्त्र:5
| मण्डल:8» अनुवाक:4» मन्त्र:30
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शिव शंकर शर्मा
पुनः वही विषय कहते हैं।
पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने+त्वम्) हे सर्वाधार ! तू (यशाः+असि) परम यशस्वी है, इसलिये हमारे (मित्रा+वरुणा) ब्राह्मण और क्षत्रिय का (आवह) धारण-पोषण कर, जो (ऋतावाना) तेरे सत्य नियम के अनुसार चलनेवाले (सम्+राजा) समान दृष्टि से सबके ऊपर शासन करनेवाले (पूतदक्षसा) और पवित्र बलधारक हैं ॥३०॥
भावार्थभाषाः - अन्त में ब्राह्मण और क्षत्रिय जाति की रक्षा के लिये प्रार्थना करके इस सूक्त की समाप्ति करते हैं ॥३०॥
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आर्यमुनि
पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे शूरपते ! (त्वम्) आप (यशाः, असि) अति यशस्वी हैं, इसलिये अपने राष्ट्र में (ऋतावाना) सत्यव्रतवाले (सम्राजा) दीप्तिमान् (पूतदक्षसा) पवित्र बलवाले (मित्रावरुणा) मित्र=अध्यापक नेता, वरुण=उपदेशक नेताओं को (आवह) नियुक्त करें ॥३०॥
भावार्थभाषाः - पूर्वोक्त सूक्तों में “इन्द्र” शब्द को हमने प्रायः वीर योद्धाओं के पक्ष में लगाया है, अनेक लोगों को इस स्थल में यह सन्देह होगा कि “इन्द्र” के अर्थ देवताविशेष तो हो सकते हैं परन्तु “वीर” अर्थ करने में क्या प्रमाण है, इसका उत्तर यह है कि “इन्द्रः सीतान्निगृह्णातु” ऋग्० ४।५७।७। यहाँ हल पकड़नेवाले हालिक=हल जोतनेवाले का नाम “इन्द्र” है, “इमां त्वमीन्द्रमीढ्वः सुपुत्रां सुभगां कृणु” ऋग्० १०।८६।३। इस मन्त्र में पति का नाम “इन्द्र” है, “इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईयते” ऋग्० ६।४७।१८। इस मन्त्र में सायणाचार्य्य के मत में “इन्द्र”=ईश्वर माया के वशीभूत होकर नाना रूपों को धारण कर लेता है। स्वामी दयानन्द सरस्वती के मत में इस मन्त्र में “इन्द्र”=जीवात्मा अपनी माया=शक्ति से नाना रूपों को धारण कर लेता है। इस प्रकार प्रकरणभेद से स्वयं वेद ही “इन्द्र” शब्द के कई अर्थ करता है।और निरुक्तकार नि० अ० १० खं० ८ में इस प्रकार “इन्द्र” का वर्णन करता है कि “इन्द्रः, इरा दृणातीति वा” “इरां ददातीति वा” “इरां दधातीति वा”=जो अन्न को दे वा धारण करे, अथवा विदीर्ण करे=काटे वा शत्रु के ऐश्वर्य्य का नाश करे, उसको “इन्द्र” कहते हैं। इस प्रकार तेजस्वी शूरवीर का नाम “इन्द्र” है। अस्तु, हम इधर-उधर की निरुक्ति में न पड़कर वेद से ही “इन्द्र” का अर्थ करते हैं। वेद स्वयं “इन्द्र” के यह अर्थ करता है कि जो निम्नलिखित प्रतिज्ञा करे और उसके पालन करने में समर्थ हो, उसको “इन्द्र” कहते हैं। जब कोई यजमान मुझे यज्ञ की रक्षा के लिये बुलाता है, तब मैं अपने अस्त्र-शस्त्रों से दोनों के नाश करनेवाले शत्रुओं के टुकड़े-२ कर डालता हूँ−ऋग्० १०।४९।७, यहाँ कोई सहस्र प्रकार से भी अर्थाभास=मिथ्या अर्थ करे, तब भी क्षत्रिय योद्धा से भिन्न इन्द्र के अन्य अर्थ नहीं लगा सकता। वेदों को लघु दृष्टि से देखनेवाले तो यही कहेंगे कि प्राचीन, प्राकृत=जंगली समय में ऐसे क्रूर कर्म किये जाते थे कि द्वेष से शत्रु के टुकड़े-२ किये जाएँ, परन्तु सभ्यता के समय में ऐसा क्रूर कर्म कैसे प्रशंसित कहा जा सकता है ? इसका उत्तर यह है कि ऋग्० १०।४२।३। में ईश्वर आज्ञा देता है कि मैंने आर्य्य नाम दस्यु=अनाचारी=अन्यायकारियों के लिये नहीं दिया। हे योद्धाओ ! तुम ऐसे अन्यायकारी दस्युओं का रौद्रभावयुक्त कर्मों से नाश करो, जो दोनों को दुःख देते हैं।क्या आज चढ़ती-बढ़ती सभ्यता की इस बीसवीं शताब्दी में विघातक, साहसी, डाकू जो अत्यन्त दारुण कर्म करते हैं, क्या वे गोलियों से नहीं उड़ा दिये जाते ? वा फाँसी नहीं चढ़ा दिये जाते ? वेद तो इससे भी बढ़कर इन्द्र=योद्धा के कृत्य को यहाँ तक वर्णन करता है कि दधिक्रा=शस्त्र को धारण करनेवाला योद्धा अकेला ही सहस्रों प्रतिपक्षियों को मार सकता है। इसका वर्णन ऋग्० ४।३८। सूक्त में है। ज्ञात होता है कि अग्निबाणादि, जो आर्यों के महाकाव्यों में पाये जाते हैं, उनका उपदेश वेदभगवान् ने भी बलपूर्वक किया था। जब वेद ने स्वयं इन्द्रसूक्तों को क्षात्रधर्मप्रधान वर्णन किया है, तो फिर इन्द्र के अर्थ शूरवीर करने में क्या आपत्ति ? इतना ही नहीं, अपितु,इन्द्रं स्तवानृतमं यस्य मह्ना विबबाधे रोचना विज्मो अन्तान्। आ यः पप्रौ चर्षणीधृद्वरोभिः प्र सिन्धुभ्यो रिरिचानो महित्वा॥ ऋग्० १०।८९।१।इत्यादि मन्त्रों में ईश्वर आज्ञा देता है कि हे याज्ञिक पुरुषो ! आप ऐसे इन्द्र की स्तुति करें, जिसका तेज शत्रुओं को तिरस्कृत करता और जो समुद्रादि अगम्य देशों को भी स्वाधीन करके सर्वोपरि होकर विराजमान होता है और ऋग्० १०।५२।६। में जिस एक-२ इन्द्र के साथ तीन सहस्र तीन सौ तीस और नौ योद्धा सदा कटिबद्ध रहते हैं, ऐसे इन्द्र=सेनाधीश योद्धा के हाथ में मैं स्वयं वज्र देता हूँ। ऋग्० १०।५२। इत्यादि अनेक सूक्तों में उसी इन्द्र का वर्णन है, जिसके विषय में हमने उक्त्त सूक्तों को लगाया है। क्या यहाँ कोई कह सकता है कि यह वह इन्द्र है, जिसकी पूजा का निषेध कृष्णजी ने पुराणों में किया है ? वा वह इन्द्र है, जो अप्सराओं का राजा कहा जाता है ? अथवा वह इन्द्र है, जो अहल्या के साथ दुराचार से सहस्रभग हुआ ? कदापि नहीं, जिसका वर्णन हमने किया है, यह वैदिक इन्द्र है, या यों कहो कि यह वह इन्द्र है, जिसके पास अर्जुन वनवास से दुबारा अस्त्र-शस्त्रविद्या सीखने गया था। इसको वेद के अनेक सूक्तों में क्षत्रिय नाम से वर्णन किया है, परन्तु विस्तार के भय से उन सूक्तों का यहाँ उल्लेख नहीं करते। यदि आर्य्यजाति, जो अब हिन्दूजाति के नाम से प्रसिद्ध है, इस वैदिक इन्द्र को अपना देवता मानती, तो इसके धीर-वीरतादि गुणों का कदापि नाश न होता।इसी प्रकार “मित्र” और “वरुण” देवता भी कोई व्यक्तिविशेष देवता न थे, जैसाकि “इन्द्रं मित्रं वरुणं” ऋग्० १।१६४।४६। इस मन्त्र के अर्थ सायणाचार्य्य ने ईश्वरविषयक किये हैं कि एक ही ईश्वर इन्द्र, मित्र, वरुण इत्यादि अनेक नामों से वर्णन किया जाता है। सायणाचार्य्य के ये अर्थ ऋग्वेद की भूमिका में हैं और फिर इसी मन्त्र के अर्थ ऋग्० १।१६४।४६। में आदित्य के किये हैं अर्थात् एक ही आदित्य=सूर्य्य इन्द्र, मित्र, वरुण इत्यादि अनेक नामों को धारण कर लेता है। यहाँ हम सायणाचार्य्य को परस्पर विरोध के दोष से दूषित नहीं करते, क्योंकि उन्होंने अपनी बनाई भूमिका में एक ईश्वरवाद के प्रकरण में आध्यात्मिक अर्थ किये हैं और पूर्वोक्त सूक्त में आधिदैविक अर्थ किये हैं अर्थात् दिव्यरूपधारी, जो तेजोमण्डल आदित्य है, वह अपनी दिव्य शक्तियों से सब पदार्थों में स्निग्धता उत्पन्न करता है, इसलिये “मित्र” है। “आदित्याज्जायते वृष्टिः”=आदित्य से वृष्टि होती है, इत्यादि वाक्यों द्वारा आदित्य वृष्टि का कारण होने से वरुण देव भी सूर्य्य ही है। इस प्रकार यह मन्त्र आधिदैविक पक्ष में लगाया गया है। केवल यही नहीं, “चत्वारि शृङ्गा०” ऋग्० ४।५८।३। इस मन्त्र के सायणाचार्य्य ने पाँच अर्थ किये हैं, एवंविश्वकर्मा विमना आद्विहाया धाता विधाता परमोत संदृक्। तेषामिष्टानि समिषा मदन्ति यत्रा सप्तऋषीन् पर एकमाहुः ॥ ऋग्० १०।८२।२।इस मन्त्र के आधिदैवत पक्ष में यह अर्थ किये हैं कि विश्वकर्मा=बहुत प्रकार से सृष्टि को लाभ पहुँचानेवाला सूर्य्य, विमना=बहुत प्रकार की मननशक्तिरूप इन्द्रियों को धारण करनेवाला, आद्विहाया=सब ओर से महान्, धाता=अपनी आकर्षणशक्ति से अनेक भुवनों को धारण करनेवाला, सप्तऋषीन् परः=सात प्रकार की किरणों से परे है। अध्यात्म पक्ष में सायणाचार्य्य ने ये अर्थ किये हैं कि अनन्तज्ञान होने से ईश्वर विमना=बहुत मनोंवाला है और सप्तऋषि=जो सात इन्द्रिय हैं, उनसे परे=इन्द्रियागोचर है, एक=नानापन के भाव से रहित केवल एक अद्वितीय है। इस प्रकार आध्यात्मिक, आधियाज्ञिक, आधिभौतिक भेद से वेदों के तीन-२ अर्थ हो सकते हैं। इस विषय में हम सायणादि भाष्यकारों पर कोई आक्षेप नहीं करते। इन्हें उपालम्भ इस अंश में देते हैं कि इन्होंने प्रत्यक्षविरुद्ध अलौकिक नानादेववाद मान कर वेदों को दूषित कर दिया है अर्थात् बड़े-२ तेजस्वी तथा ओजस्वी आत्मा जो भूत प्राणी हैं, उनके विषय में वेदों के विनियोग का सर्वथा त्याग कर दिया। यदि कहीं भूलचूक से आधिभौतिक अर्थ किये भी हैं, तो व्यक्तिविशेष मानकर किये हैं कि कोई विश्वामित्र या और कोई वसिष्ठ था, एवं वरुण भी कोई विशेष देवता है, जिसकी पूजा से पुरुष समुद्र में नहीं डूबता, इत्यादि मिथ्या कथाओं की तो भरमार है, पर मित्र का यौगिक अर्थ क्या है ? और वरुण का यौगिक अर्थ क्या है ? और वेद में किस भाव से इनके प्रयोग आते हैं ? इस विषय पर सायणादि भाष्यकारों ने ध्यान नहीं दिया। इस विषय में ऋग्० ८।२३।३०। मन्त्र की ओर ध्यान दिलाते हुए हम यह बतलाते हैं कि वेद में आधिभौतिक अर्थ किस प्रकार हैं। इस मन्त्र में यह प्रार्थना की गई है कि हे अग्ने ! तू मित्र और वरुण देवता को हमारे यज्ञ में प्राप्त कर। यहाँ यह बात मीमांसायोग्य है कि वह मित्र और वरुण कौन हैं ? यदि मित्र के अर्थ सूर्य्य के माने जायें, तो क्या सूर्य्य को अग्नि देवता यज्ञ में बुला सकता है ? कदापि नहीं, फिर ऐसी असंभवता वेद क्यों बतलाता ? हाँ वरुण मेह=वृष्टि का देवता माना जा सकता है, इसलिये यदि आधियाज्ञिक अर्थ किये जायें, तो अर्थ ये होते हैं कि हे यज्ञ के देवता अग्ने ! तू वरुण से हमारे यज्ञ को विभूषित कर अर्थात् इस यज्ञ से वृष्टि के देवता द्वारा वृष्टि करा, परन्तु मित्र के अर्थ इस प्रकार आधियाज्ञिक सङ्गत प्रतीत नहीं होते, इसलिये मित्र की सन्निधि से यहाँ वरुण के अर्थ भी आधिभौतिक ही सङ्गत प्रतीत होते हैं, जैसा कि “मेद्यति स्निह्यति इति मित्रम्”=जो सबको सत्य की शिक्षाओं अर्थात् विद्यारूपी स्नेह से सुसिञ्चित करे, ऐसे सद्गुणसम्पन्न अध्यापक का नाम यहाँ “मित्र” है और जिसको “मेदयतेर्वा” इस कथन से निरुक्त भी प्रमाणित करता है और जो अपने सदुपदेशों द्वारा सब आविद्यिक छिद्रों को आच्छादित करे=ढक दे, उसको “वरुण” कहते हैं, “वृणोति आच्छादयति सदुपदेशेन यः स वरुणः”=जो सदुपदेशों द्वारा पूर्ण करे, उसको “वरुण” कहते हैं, ये ही अर्थ निरुक्त में किये हैं।अन्य युक्ति उक्तार्थ की पुष्टि में यह है कि जब मित्र के अर्थ ऋग्० ३।५९।१। में सायणाचार्य्यादि विश्वामित्र के भी कर लेते हैं अर्थात् विश्वामित्र और मित्र देवता एक हैं, तो फिर आधिभौतिक अर्थ कर लेने में क्या आपत्ति ? क्योंकि व्यक्तिविशेष की अपेक्षा से ऋषिसामान्य अर्थ करना इसलिये सङ्गत प्रतीत होता है कि रामचन्द्र के समकालीन “विश्वामित्र” शब्द को वेद भी नहीं कहता, हाँ गुणवाचक शब्दों का प्रयोग वेद में आता है, जैसा कि, पुरुहूत, पुरन्दर, वाजी, अर्वा इत्यादि शब्द वेद में पाये जाते हैं, एवं मित्र, वरुण शब्द भी योगरूढ नहीं, किन्तु केवल यौगिक हैं अर्थात् व्युत्पन्न हैं, जैसा कि हम पीछे वर्णन कर आये हैं और ऋग्० ३।५९।४। में भी मित्र वा गुरु को नमस्कारयोग्य कहा है कि “अयं मित्रो नमस्यः”=इस मित्र को नमस्कार है।वेदार्थ के करने में जो आजकल त्रुटि हो रही है, वह यह है कि “पुरुहूत” के अर्थ अमरकोषादि टीकाकार यही करते हैं कि “पुरुहूतो पुरन्दरः” अमरको० खं० १ स्व० व० ४८=पुरुहूत नाम इन्द्र का है, किसी अन्य देवता का नहीं। यद्यपि बहुतों से यज्ञ में बुलाये जाने के कारण अन्य देवता भी “पुरुहूत” शब्द से कहे जा सकते हैं, परन्तु योगरूढ़ होने से यह शब्द केवल व्यक्तिविशेष इन्द्र को ही कहता है, यह अमरकोषादि कोषकारों का मत है। ऐसा अज्ञान एक दो को नहीं, किन्तु संस्कृत के बड़े-२ धुरन्धर पण्डित भी उक्त अज्ञान में फँसे हुए हैं, इस अज्ञान की निवृत्ति के लिये हम निम्नलिखित ऋग्वेद का मन्त्र प्रमाण देते हैं−होतारं विश्ववेदसं सं हि त्वा विश इन्धते। स आ वह पुरुहूत प्रचेतसोऽग्ने देवाँ इह द्रवत् ॥ ऋग्० १।४४।७।इसका भाव यह है कि मैं उस होता=अग्नि की उपासना करता हूँ, जो सब प्रकार के धनों का स्वामी है और जिसकी सब प्रजाएँ उपासना करती हैं, वह अग्नि हमारे इस यज्ञ में देवताओं को प्राप्त करावे।सायणाचार्य्य ने इस मन्त्र को भौतिकाग्नि के पक्ष में लगाया है। अस्तु, कुछ हो, पर सायणाचार्य्य ने भी “पुरुहूत” नाम यहाँ अग्नि का रखकर अमरकोषादि टीकाकारों की प्रथा को मिटा दिया और केवल यौगिक अर्थ करके पुरुहूत अग्नि को माना कि जो बहुतों से बुलाया वा सत्कार किया जाय, उसका नाम यहाँ “पुरुहूत” है।जिस प्रकार अमरकोषादि टीकाकारों ने मनमाना नाम इन्द्र का पुरुहूत रख दिया, इसी प्रकार वाजी के अर्थ केवल घोड़ा करके ऐसा अज्ञान उत्पन्न कर दिया कि “ये वाजिनं परिपश्यन्ति पक्वम्” ऋग्० १।१६२।१२-१३। इत्यादि मन्त्रों में भाष्यकारों को केवल घोड़ा मारने के अर्थ सूझने लगे, इसलिये सायणादि भाष्यकार इसके यह अर्थ करते हैं कि जो लोग घोड़े को पकता हुआ देखते और उसके मांस की भिक्षा माँगते हैं, उनका अभिगूर्तिः=उद्यम हमको प्राप्त हो। इस अर्थ का एकमात्र कारण अमरकोष का यह पाठ है कि−“वाजिवाहार्वगन्धर्वहयसैन्धवसप्तयः” अमर० खं० २ क्षत्रवर्ग० ८।४३=वाजी, अर्वा इत्यादि नाम घोड़े के हैं और जब हम वैदिक शब्दों का वर्ताव देखते हैं, तो यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि वाजी, अर्वा यह केवल घोड़े के ही नाम नहीं, किन्तु गुणवाचक होने से घोड़े में भी प्रयुक्त हो सकते हैं, मुख्यतया नहीं, जैसा कि−“रक्षोहणं वाजिनमाजिघर्मि मित्रं प्रथिष्ठमुपयामि शर्म” ऋग्० १०।८७।१। इत्यादि मन्त्रों में वर्णन किया है कि राक्षसों के हनन करनेवाले वाजिनं=बलवाले अग्नि को मैं घृत से प्रदीप्त करता हूँ। यहाँ सायणाचार्य्य ने वाजिनं के अर्थ बलवाले अग्नि के कैसे कर दिये, क्योंकि अमरकोष में तो वाजी के अर्थ कहीं भी बल, अन्न यश के नहीं आये। यदि कहा जाय कि यहाँ निरुक्त के अनुसार किये हैं तो फिर “ये वाजिनं परिपश्यन्ति पक्वम्” यहाँ विचारे अनाथ घोड़े की हत्या के क्यों किये ? इसी प्रकार ऋग्० ४।३८।१०। में वाजि और अर्वा ये दोनों नाम दधिक्रा=शस्त्रविशेष के लिये आये हैं कि हे दधिक्रा ! आप सूर्य्य के समान चमकीले, वाजि=बलवाले और अर्वा=रणकुशल हैं। जब इस प्रकार वाजि तथा अर्वा नाम तेजस्वी पदार्थों के आये हैं, तो फिर अर्वा से अर्वा घोड़े की हत्या करने के क्या अर्थ ? ऋग्० ४।३८।१०। मन्त्र में सायणाचार्य्य ने अर्वा के अर्थ रणकुशल के किये हैं, जिससे ये अर्थ ठीक उपलब्ध होते हैं कि जो लोग “अर्वतो मांसभिक्षामुपासते”=युद्धकुशल शत्रु के मांस की भिक्षा माँगते हैं अर्थात् भीम की प्रतिज्ञा के समान दुःशासनरूप शत्रु का वध करते हैं, उनका उद्यम परमात्मा हमको दे ॥पूर्वप्रकृत यह था कि मित्र, वरुण कोई व्यक्तिविशेष देवता न थे, किन्तु अत्यन्त स्नेह करनेवाले का नाम “मित्र” और सदुपदेश द्वारा आच्छादन करके सुरक्षित कर देनेवाले का नाम “वरुण” था, जैसाकि हम पूर्व कथन कर आये हैं। अधिक क्या, ऋग्० १०।८७।१। मन्त्र का प्रमाण जो हमने वाजी के विषय में दिया है कि वाजी नाम तेजस्वी होने से अग्नि का है, इतना ही नहीं इसी मन्त्र में मित्र नाम भी अग्नि का आया है फिर मित्र से देहधारी देवताविशेष कैसे लिया जा सकता है? हमारे कथन से ही क्या, वरुणादिकों को व्यक्तिविशेष माननेवाले सायणादि भाष्यकार भी “इन्द्रं मित्रं वरुणं” ऋग्० १।१६४।४६। मन्त्र में एक ही परमात्मा के नाम वरुणादि हैं, इस बात को मानते हैं। ऋग्वेद के प्रथम मण्डल की भूमिका में सायणाचार्य्य ने इस बात को माना है और इसी भाव को “यो देवानां नामधा एक एव” ऋग्० १०।८२।३। मन्त्र स्पष्टरूप से वर्णन करता है कि सब दिव्य नामों का वाच्य अर्थात् अग्नि आदि तेजस्वी नामों से उसी परमात्मा का वर्णन किया गया है और इस मन्त्र पर सायणाचार्य्य ने भी ऐसा ही भाष्य किया है कि एक परमात्मा ही सब देवों का देव है और उसी ने इस विविध रचनावाले ब्रह्माण्ड को उत्पन्न किया है।हमारे विचार में इसका कारण यह है कि सायणाचार्य्य के समय में हिंसाप्रधान यज्ञों की प्रथा अभिशेष थी अर्थात् बुद्ध महाराज के पश्चात् भी वाममार्ग के प्रवर्तित कराये हुए यज्ञ अभी तक चले आते थे। दूसरा कारण यह भी प्रतीत होता है कि सायणाचार्य्य का समय घोर अत्याचार का था अर्थात् ईसा की चौदहवीं शताब्दी में राजा बुक के दर्बार में सायणाचार्य्य थे। उस समय पश्चिमी म्लेच्छ जातियों का घोर आक्रमण हो रहा था। इसी कारण निरुक्तादि ग्रन्थों के अनुसन्धान तथा वेदों के महत्त्व का समय न था। पौराणिक वायु भी इतस्ततः बलपूर्वक बह रहा था, इसी कारण अर्वा के अर्थ अर्वी घोड़े के ही सूझते थे, क्योंकि उस समय अर्बी घोड़ों की खुरक्षुन्न पृथिवी की धूल नभोमण्डल को व्याप्त कर रही थी। ऐसे समय में यदि शब्दार्थ का विनिमय होकर वेदों का अनर्थ हुआ, तो कौन आश्चर्य्य की बात है।केवल यही नहीं, शतपथ में जो पुरुरवा नाम विद्वान् का था और उर्वशी ब्रह्मविद्या थी, उर्वशी ने पुरुरवा को कहा कि मैं जब तुम्हें नंगा देख लूँगी, फिर तुम्हारे घर में न रहूँगी। तात्पर्य्य यह है कि ब्रह्मविद्या वेदवेत्ता ब्राह्मण के प्रति यह कथन करती है कि यदि तू शील तथा सदाचारादि वस्त्रों से रहित हो जायेगा, तो मैं तुम्हारे समीप न रहूँगी। जब से पुरुरवा व्यक्तिविशेष समझा जाने लगा और उर्वशी स्वरवेश्या समझी जाने लगी, तब से कथा ने अन्य रूप धारण कर लिया। पुरु=बहुत और “रव” शब्द जिसके पास हो, उसका नाम पुरुरवा था। बृहस्पति अर्थात् वाणियों के पति विद्वान् का नाम यहाँ “पुरुरवा” था। इसी प्रकार उर्वशी=ब्रह्मविद्या का नाम था, क्योंकि “उर्वशी” शब्द निरुक्त में ब्रह्मविद्या के नामों में पढ़ा गया है, अन्य प्रमाण यह है कि−अन्तरिक्षप्रां रजसो विमानीमुप शिक्षाम्युर्वशीं वसिष्ठः। उप त्वा रातिः सुकृतस्य तिष्ठान्नि वर्तस्व हृदयं तप्यते मे॥ ऋग्० १०।९५।१७।इत्यादि मन्त्रों के यह अर्थ किये जाने लगे कि उर्वशी की वसिष्ठ इस प्रकार स्तुति करता है कि तू अन्तरिक्ष को भी मापनेवाली अर्थात् अप्सरा होने के कारण उड़ जाती है और रजस=जलों को मापनेवाली अर्थात् कुरुक्षेत्रादिकों के तालाबों में क्रीड़ा करनेवाली है। वसिष्ठ कहता है कि मैं तुझे यह शिक्षा देता हूँ कि तू पुरुरवा नामक राजा को प्राप्त हो और राजा उर्वशी को यह कहता है कि तू मेरी आँखों से परे हट जा, क्योंकि तैने मेरे हृदय को तपा दिया है।यदि वैदिक वा पौराणिक वंशावली देखी जाय तो वसिष्ठ उर्वशी का पुत्र माना गया है, जैसा कि “उर्वश्यां वसिष्ठः” ऋग्० ७।१४।३=उर्वशी में वसिष्ठ हुआ, यहाँ वास्तव में तात्पर्य्य यह था कि उर्वशी=ब्रह्मविद्या की गोद में पले हुए विशेषगुणसम्पन्न ब्राह्मण का नाम यहाँ वसिष्ठ था और यदि सायणादि भाष्य प्रामाणिक माने जायें, तो वसिष्ठ ने अपनी माता उर्वशी को पुरुरवा राजा के पास भेजने की अनुमति दी, जैसा कि हम उक्त मन्त्र के अर्थों से सिद्ध कर आये हैं।जहाँ पुत्र माताओं को व्यभिचार के भाव से राजाओं के पास भेजने का उपदेश करें, ऐसी कथाओं के कीर्तन से क्या लाभ। वास्तव में बात यह थी कि उक्त मन्त्र जो ऋग्० १०।९५।१७। का है, इसमें ब्रह्मविद्या का वर्णन है, जैसा कि अन्य आर्षग्रन्थों में भी यह लिखा है कि विद्या आकर ब्राह्मण से बोली कि तू मेरी रक्षा कर। “जो ब्राह्मण=ब्रह्मवेत्ता पुरुष शील तथा सदाचार से ब्रह्मविद्या की रक्षा नहीं करता, उसके पास ब्रह्मविद्या नहीं रहती” यही इस शतपथ की कथा का तात्पर्य्य था, जिसको न समझकर उर्वशी=स्वरवेश्या और पुरुरवा उस पर अनुरक्त समझा गया, जिससे भागवतादि पुराणों में इस कथा ने और भी विशदरूप धारण कर लिया। इसी प्रकार ब्राह्मणग्रन्थों के उत्तम भाव बदलकर पुराणों के कल्पित कथा कथानकों में आगये, जिससे भारतवर्ष के सत्य साहित्य का सर्वथा उलट-पुलट होगया। यहाँ तक कि जब भारत, अर्जुन, कृष्ण इत्यादि नाम वेद में आ जाते हैं, तो लोगों को यह सन्देह हो जाता है कि महाभारतादि ग्रन्थों में जो वर्णन है, वह सब वेद से ही लिया गया है। वास्तव में भाव यह है कि वेद में भरत नाम कर्मयोगियों का था, जो अपने कर्मकाण्ड द्वारा इस विश्व को भरपूर कर देते थे। अर्जुन नाम क्षात्रधर्मप्रधान योद्धा का था एवं कृष्ण नाम आकर्षण करनेवाले का था। ये सब नाम वैदिक होने से महाभारतकालीन पुरुषों के भी रख लिये गये, क्योंकि वेदज्ञ पुरुष वैदिक नामों को ही श्रेष्ठ समझकर रखते थे। यदि निरुक्तादि ग्रन्थों का आलोचन बना रहता, तो यह बात स्पष्ट रीति से ज्ञात रहती कि भरत नाम वेद में याज्ञिक कर्मकाण्डियों का है, क्योंकि वे अपने यज्ञादि कर्मों द्वारा देश को भरपूर कर देते हैं और अब इससे ऐसा विपरीत समय आ गया कि अमरकोषादि कोषों के द्वारा ही शब्दों का शक्तिग्रह होने लगा, जिनमें कृष्ण वा अर्जुन का नाम खोजो तो पाण्डव, अर्जुन वा यादव कृष्ण का ही नाम मिलेगा। इसकी विवेचना इन कोषों में कहीं भी नहीं आती कि वेद में ये नाम किस अभिप्राय से आये थे। ऋग्० १०।२१।३। में कृष्ण और अर्जुन हवन की श्वेत तथा कृष्ण ज्वालाओं के लिये आये हैं, किसी व्यक्तिविशेष के लिये नहीं, अस्तु−यदि इस प्रकार वेद में प्रयुक्त हुए शब्दों को लेकर अर्थ किये जाएँ, तो लोग कहते हैं कि यह खेंचतान है। हम पूछते हैं कि “सोमः पवते”=जिसके अर्थ पवित्र करना है, उसके अर्थ क्षरति=बहना किये जाते हैं, “वेन” के अर्थ यज्ञ के हैं, परन्तु इसके अर्थ वेन राजा किये जाते हैं, जैसा कि निम्नलिखित सायणभाष्य में वर्णन किया है कि “सोमः पवते०” ऋग्० ९।९६।५। इसमें “पवते” के अर्थ “क्षरति” के किये हैं और ऋग्० १०।१५१।५। में अत्रि तथा कण्व ये दोनों ऋषिविशेष माने हैं। ऋग्० १।१३९।९। में इसके विरुद्ध “कण्व” के अर्थ बुद्धिमान् और “अत्रि” के अर्थ तीनों प्रकार के दुःखों से रहित किये हैं अर्थात् “अत्रिर्न त्रय इति निरुक्तम्” निरु० ३।१७। इत्यादि निरुक्त के प्रमाण देकर यह सिद्ध किया है कि जिसमें तीनों दुःख न हों, उसका नाम “अत्रि” है, एवं कहीं गुणप्रधान, कहीं व्यक्तिविशेष और कहीं वेन=यज्ञ तथा कहीं वैन्य से वेन राजा का पुत्र लिया है। इसी प्रकार अन्य कई एक लोग “अज” के अर्थ असहयोगी के करते हैं और वे यह भी नहीं देखते कि “योऽजो भागस्तपसा तं तपस्व” ऋग्० १०।१६।४। इस मन्त्र में जीवात्मा को पूर्ण सहयोगी माना है। इस प्रकार खेंचतान होते हुए भी कोई अपनी दिव्यदृष्टि से काम नहीं लेता, परन्तु जब वेद में यथायोग्य अभ्यास करनेवाला कोई विद्वान् पुरुष वेद में प्रयुक्त अर्थ देखकर सत्यार्थ करता है, तो अल्पश्रुत लोग उसका नाम खेंचतान रख लेते हैं। उदाहरण के लिये देखो मुण्डक० १।५। जहाँ परा, अपरा विद्या का वर्णन है कि “परा चैवापरा च” यहाँ सब टीकाकारों ने वेद को अपरा=सांसारिक विद्या में रखा है और परा=ब्रह्मविद्या से वेद का सर्वथा बहिष्कार कर दिया है। इसको कोई भी खेंचतान नहीं कहता। यदि वेद का अनुशीलन रहता तो−परो दिवा पर एना पृथिव्या परो देवेभिरसुरैर्यदस्ति। कं स्विद्गर्भं प्रथमं दध्र आपो यत्र देवाः समपश्यन्त विश्वे॥ ऋग्० १०।८२।५।इत्यादि मन्त्रों पर दृष्टि जाकर यह स्पष्ट रीति से विदित हो जाता कि वास्तव में पराविद्या का भाण्डार एकमात्र वेद ही है। इस मन्त्र का आशय यह है कि वह परब्रह्म द्युलोक, पृथिवीलोक से परे है और उसी ने प्रथम इस विश्वव्यापिनी प्रकृति को अपने गर्भ में धारण किया, जिसमें सब दिव्य लोक-लोकान्तर सङ्गत हैं। उस एक अज=अविनाशी के सहारे ही ये सब लोक-लोकान्तर ठहरे हुए हैं। इसी भाव को “अजस्य नाभावध्येकमर्पितं यस्मिन्विश्वानि भुवनानि तस्थुः” ऋग्० १०।८३।६ ने स्पष्ट कर दिया कि सब लोक-लोकान्तरों का सहारा एकमात्र परब्रह्म ही है, जिसकी नाभि में सब लोक-लोकान्तर ओतप्रोत हैं। नाभि के अर्थ भी यहाँ सायणाचार्य्य ने साकार नाभि के नहीं किये अर्थात् “सर्वजगद्बन्धक” शब्द देकर यह अर्थ किये हैं कि जो सम्पूर्ण लोक-लोकान्तरों को अपने शासन में रखनेवाली शक्ति है, उसका नाम यहाँ “नाभि” है। जब इस स्थल में “पर” नाम सर्वोपरि होने से परब्रह्म का है, फिर वेदों में पराविद्या कैसे नहीं, क्योंकि परा इसी “पर” शब्द से बनता है अर्थात् स्त्रीलिङ्ग होने से उसमें टाप् प्रत्यय हो जाता है। इस प्रकार जो पराविद्या का एकमात्र भाण्डार वेद था, उसका अध्ययनाध्यापन जब आर्य्यजाति ने छोड़ दिया, तो उसको वेदकथा कहानियों की पुस्तक वा प्राकृत लोगों के गीत भान होने लगी। ऐसे अन्धकार के समय में सत्यासत्यार्थ के विवेक की क्या कथा। इसी अन्धकार से निकालने के लिये हम प्रतिपक्षी भाष्यकारों के भाष्यों की प्रतीकें देकर प्रतिबन्दी उत्तरों द्वारा वेदभाष्य को विशद करते हैं, ताकि वेदानुयायी पुरुष स्वाध्यायरूप तपोबल से पुनः वेदार्थ पर आरूढ़ हों ॥३०॥यह तेईसवाँ सूक्त और चौदहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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शिव शंकर शर्मा
पुनस्तमर्थमाह।
पदार्थान्वयभाषाः - हे अग्ने ! त्वम्। यशाः=यशस्वी। असि। अतः। ऋतावाना=तव सत्यनियमपालकौ। पूतदक्षसा=पवित्रबलौ। सम्राजा=सम्राजौ। मित्रावरुणा=मित्रावरुणौ=ब्राह्मणक्षत्रियौ। आवह=धारय=पोषय ॥३०॥
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आर्यमुनि
पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे शूरपते ! (त्वम्) त्वम् (यशाः, असि) यशस्वी असि अतः (ऋतावाना) सत्यवन्तौ (सम्राजा) दीप्तिमन्तौ (पूतदक्षसा) पवित्रबलौ (मित्रावरुणा) मित्रम्=अध्यापकं नेतारम्, वरुणम्=उपदेशकम् नेतारं च (आवह) स्वराष्ट्रे नियुङ्ग्धि ॥३०॥ इति त्रयोविंशतितमं सूक्तं चतुर्दशो वर्गश्च समाप्तः ॥