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प्र॒थ॒मं जा॒तवे॑दसम॒ग्निं य॒ज्ञेषु॑ पू॒र्व्यम् । प्रति॒ स्रुगे॑ति॒ नम॑सा ह॒विष्म॑ती ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

prathamaṁ jātavedasam agniṁ yajñeṣu pūrvyam | prati srug eti namasā haviṣmatī ||

पद पाठ

प्र॒थ॒मम् । जा॒तऽवे॑दसम् । अ॒ग्निम् । य॒ज्ञेषु॑ । पू॒र्व्यम् । प्रति॑ । स्रुक् । ए॒ति॒ । नम॑सा । ह॒विष्म॑ती ॥ ८.२३.२२

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:23» मन्त्र:22 | अष्टक:6» अध्याय:2» वर्ग:13» मन्त्र:2 | मण्डल:8» अनुवाक:4» मन्त्र:22


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शिव शंकर शर्मा

अग्निहोत्र कर्म इससे दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (हविष्मती) घृतवती (स्रुक्) आहुति-प्रक्षेपणी स्रुवा (नमसा) नमः और स्वाहादि शब्दों के साथ (अग्निम्+प्रति+एति) अग्नि के प्रति पहुँचती है, जो (प्रथमम्) सर्वश्रेष्ठ (जातवेदसम्) जिसके साहाय्य से विविध सम्पत्तियाँ होती हैं और (यज्ञेषु+पूर्व्यम्) जो यज्ञादि शुभकर्मों में पुरातन है ॥२२॥
भावार्थभाषाः - प्रथम स्रुवा आदि सामग्री एकत्रित करके हवन करे और होम के समय भगवान् का मन से स्मरण करता जाए और जो अभिलाषा हो, उसको भी मन में रक्खे ॥२२॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (जातवेदसम्) जो सब प्राणियों को जानता है (यज्ञेषु, पूर्व्यम्) यज्ञों में रक्षार्थ सबसे प्रथम उपस्थित होता है, ऐसे (अग्निम्) शूरपति के प्रति (हविष्मती, स्रुक्) हवि से परिपूर्ण स्रुक् (नमसा) स्तुति के साथ (प्रथमम्, प्रत्येति) सबसे प्रथम जाती है ॥२२॥
भावार्थभाषाः - जो सब प्राणियों की रक्षा करता और जो प्रजापालक यज्ञों में सबसे प्रथम उपस्थित होकर यज्ञ का रक्षक होता है, ऐसे शूरपति का अतिथियों के सत्कारार्ह पात्रों द्वारा यज्ञसदन में सब याज्ञिक सत्कार करें ॥२२॥ तात्पर्य्य यह है कि यज्ञभाग के योग्य देवताओं के प्रति ही यज्ञ के स्तवन तथा स्रुक्=यज्ञपात्र सबसे प्रथम सफल होते हैं अर्थात् यज्ञ के पात्र तथा स्तुतियों का साफल्य तभी होता है, जब योग्य शूरवीर अथवा विद्वानों का यज्ञ में सत्कार=पूजन किया जाता है ॥२२॥
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शिव शंकर शर्मा

अग्निहोत्रं दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः - हविष्मती=घृतवती। स्रुक्=आहुतिप्रक्षेपणी। नमसा= नमःस्वाहादिशब्दैः सह। अग्निम्। प्रत्येति=प्राप्नोति। कीदृशम्। प्रथमम्। जातवेदसम्=सर्वज्ञम्। जातं जातं वेत्तीति। यज्ञेषु। पूर्व्यम्=पुरातनम् ॥२२॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (जातवेदसम्) सर्वं प्राणिजातं वेत्तारम् (यज्ञेषु, पूर्व्यम्) यज्ञेषु पूर्वमागन्तारम् (अग्निम्) तं शूरम् (हविष्मती, स्रुक्) हविष्पूर्णा स्रुक् (नमसा) स्तुत्या सह (प्रथमम्, प्रत्येति) सर्वेभ्यः प्रथमं प्रत्यागच्छति ॥२२॥