पदार्थान्वयभाषाः - (विश्वचर्षणे) हे सूक्ष्मपदार्थवेत्ता (विश्वमनः) सर्वत्र मनोगतिवाले विद्वान् ! (अग्निम्) जो परपक्ष को अपने पक्ष में मिलानेवाला युद्धकुशल विद्वान् है (उत) और (विस्पर्धसः) जो उसके साथ स्पर्धा नहीं करते, उनके लिये (रथानाम्, दामानम्) दिव्यरथों का देनेवाला है, ऐसे युद्धकुशल विद्वान् की (गिरा) सुस्पष्ट वाणी से (स्तुषे) स्तुति करो ॥२॥
भावार्थभाषाः - “अग्निः कस्माद् अङ्गं नयति संनममानः” निरु० अ० ७ ख० १४=जो परपक्षियों को दबाकर अपने पक्ष में मिला ले, उसका नाम यहाँ “अग्नि” है अथवा आग्नेयास्त्र का प्रयोग करनेवाले का नाम “अग्नि” है। ज्ञानयोगी विद्वान् को उचित है कि वह युद्धविद्याकुशल कर्मयोगी के साथ स्पर्धा न करता हुआ परस्पर मित्रभाव से कर्मसाध्य यानादिकों को प्राप्त कर अपने दिव्य ज्ञान को यथेष्ट प्रकाशित करे ॥२॥ तात्पर्य्य यह है कि युद्धविद्याकुशल कर्मयोगी को अग्निरूप वर्णन करके यह कथन किया है कि ऐसे वीर योद्धा के साथ ईर्ष्या, द्वेष अथवा अमर्ष न करें, किन्तु अपनी अस्त्र-शस्त्रादि शक्तियों को बढ़ाकर उक्त योद्धा के गुणों को अपने में धारण करें ॥२॥