वांछित मन्त्र चुनें

आ हि रु॒हत॑मश्विना॒ रथे॒ कोशे॑ हिर॒ण्यये॑ वृषण्वसू । यु॒ञ्जाथां॒ पीव॑री॒रिष॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā hi ruhatam aśvinā rathe kośe hiraṇyaye vṛṣaṇvasū | yuñjāthām pīvarīr iṣaḥ ||

पद पाठ

आ । हि । रु॒हत॑म् । अ॒श्वि॒ना॒ । रथे॑ । कोशे॑ । हि॒र॒ण्यये॑ । वृ॒ष॒ण्व॒सू॒ इति॑ वृषण्ऽवसू । यु॒ञ्जाथा॑म् । पीव॑रीः । इषः॑ ॥ ८.२२.९

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:22» मन्त्र:9 | अष्टक:6» अध्याय:2» वर्ग:6» मन्त्र:4 | मण्डल:8» अनुवाक:4» मन्त्र:9


बार पढ़ा गया

शिव शंकर शर्मा

राज-कर्त्तव्य कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (वृषण्वसू) हे धनवर्षिता महाधनेश्वर (अश्विना) अश्वयुक्त राजा और अमात्य ! आप दोनों (कोशे) द्रव्यादि कोशयुक्त (हिरण्यये) सुवर्णरचित (रथे) रमणीय रथ वा विमान पर (आ+रुहतम्+हि) अवश्य बैठिये और बैठकर (पीवरीः) बहुत (इषः) इष्यमाण अन्नादिक सम्पत्तियों को (युञ्जाथाम्) हम लोगों में स्थापित कीजिये ॥९॥
भावार्थभाषाः - राजा और राज्यकर्मचारी रथादि यान पर चढ़ प्रजाओं के कल्याण के लिये इधर-उधर सदा भ्रमण करते हुए उनके सुख बढ़ावें ॥९॥
बार पढ़ा गया

आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (वृषण्वसू) हे धनों की वृष्टि करनेवाले (अश्विना) व्यापक गतिवाले सेनाधीश न्यायाधीश ! (हिरण्यये) आप सुवर्णनिर्मित (कोशे, रथे) दिव्य रथ में (हि, आरुहतम्) निश्चय आरोहण करें और सब प्रजाओं को (पीवरीः) समृद्ध (इषः) सब कामनाओं से (युञ्जाथाम्) युक्त करें ॥९॥
भावार्थभाषाः - हे सम्पूर्ण धनों के दाता न्यायाधीश तथा सेनाधीश ! आपकी शक्तिएँ सर्वत्र फैली हुई प्रजाओं में सुप्रबन्ध कर रही हैं। आप अपने दिव्य यानों में आरूढ़ होकर प्रजाओं को समृद्धियुक्त करते हुए उनकी शुभ कामनाओं को पूर्ण करें, ताकि सब प्रजाजन वैदिककर्मों से विचलित न हों अर्थात् वैदिककर्म करते हुए सदैव परमात्मा के स्तवन करने में प्रवृत्त रहें ॥९॥
बार पढ़ा गया

शिव शंकर शर्मा

राजकर्तव्यमाह।

पदार्थान्वयभाषाः - हे वृषण्वसू=वर्षणधनौ=धनानां वर्षितारौ धनेश्वरौ अश्विना=राजानौ ! युवां हि खलु। कोशे=द्रव्यादिकोशयुक्ते। हिरण्यये=सुवर्णनिर्मिते। रथे=रमणीयविमाने। आरुहतम्। पश्चात्। पीवरीः=स्थूलाः=पालयित्रीर्बह्वीः। इषः=इष्यमाणाः सम्पत्तीः। युञ्जाथाम्=अस्मासु स्थापयतम् ॥९॥
बार पढ़ा गया

आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (वृषण्वसू) हे धनानां वृष्टिकर्त्तारौ (अश्विना) व्यापकगती ! (हिरण्यये) सौवर्णे (कोशे, रथे) दिव्ये रथे (आरुहतम्, हि) आरूढौ भवतं हि (पीवरीः) समृद्धाः (इषः) सर्वेषां कामनाः (युञ्जाथाम्) सर्वप्रजाभिः योजयेथाम् ॥९॥