इससे ईश्वर की अगम्यता दिखलाते हैं।
पदार्थान्वयभाषाः - (शुक्रः) ज्ञान और विद्या से भासमान तपस्वी अथवा निज प्रकाश से दीप्तिमान् सूर्य्यादि ग्रह (यम्) जिस इन्द्रवाच्य परमात्मा को (न) नहीं (अपस्पृण्वते) प्रसन्न कर सकता। (दुराशीः) समाधिसिद्ध योगी अथवा दुर्निरीक्ष्य नक्षत्रगण जिसको (न) नहीं तृप्त कर सकता। और (तृप्राः) ज्ञानों से वा दानों से वा उपकारों से तृप्त करनेवाले अध्वर्यु प्रभृति अथवा पृथिवी आदि महाभूत (न) नहीं (अपस्पृण्वते) तृप्त कर सकते हैं, उसकी उपासना करो। वह कैसा है। (उरुव्यचसम्) उरु=विस्तीर्ण, व्यचम्=व्यापकता जिसकी, वह उरुव्यचा=सर्वव्यापक। यद्यपि वह एक अंश से सम्पूर्ण जगत् को आवृत कर वर्तमान है। उसको कोई भी पदार्थ तृप्त करने में समर्थ नहीं, तथापि वह (सुहार्दम्) सबका सुमित्रस्वरूप है ॥५॥
भावार्थभाषाः - जो सर्वेश्वर सर्वात्मा परमात्मा है, वह सदा एक रस से रहता है। वह न कदापि तृप्त होता न प्रसन्न और न क्लेशित होता। जिसको कोई भी पदार्थ प्रसन्न नहीं कर सकते, उसको अध्वर्युगण स्तोत्रादिकों से कैसे लुभा सकते। तथापि प्रेम, भक्ति और श्रद्धा से जो उसकी स्तुति प्रार्थना करते हैं, वह उनकी परमदेवता के प्रति मानसिक भावना है। यद्यपि सर्व भाव से उसको कोई भी प्रसन्न नहीं कर सकता, तथापि वह सबका पिता और भक्तवत्सल है, अतः उसकी प्रसन्नता मनुष्यों के कर्म में प्रतीत होती है ॥५॥