अब कर्मयोगी के प्रति जिज्ञासु की प्रार्थना कथन करते हैं।
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे कर्मयोगिन् ! (नः) हमको (पीयत्नवे) हिंसक के लिये (मा) मत (परा, दाः) समर्पित करें (शर्धते) जो अत्यन्त दुःखदाता है, उसको मत दीजिये (शचीवः) हे शक्तिमन् ! (शचीभिः) अपनी शक्तियों द्वारा (शिक्ष) मेरा शासन कीजिये ॥१५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में जिज्ञासु की ओर से यह प्रार्थना कथन की गई है कि हे शासनकर्त्ता कर्मयोगिन् ! आप मुझको हिंसक तथा क्रूरकर्मी मनुष्य के वशीभूत न करें, जो अत्यन्त कष्ट भुगाता है। कृपा करके आप मुझको अपने ही शासन में रखकर मेरा जीवन उच्च बनावें, जिससे मैं परमात्मा की आज्ञापालन करता हुआ उत्तम कर्मों में प्रवृत्त रहूँ। स्मरण रहे कि मन्त्र में “शची” शब्द बुद्धि, कर्म तथा वाणी के अभिप्राय से आया है और वैदिककोश में इसके उक्त तीन ही अर्थ किये गये हैं अर्थात् “शची” शब्द यहाँ कर्मयोगी की शक्ति के लिये प्रयुक्त हुआ है, किसी व्यक्तिविशेष के लिये नहीं। पौराणिक भाष्यकारों ने “शची” शब्द कहीं-कहीं एक व्यक्तिविशेष इन्द्र की स्त्री के लिये प्रयुक्त किया है और व्यक्तिविशेष ही उन्होंने “इन्द्र” माना है, परन्तु यह भाव मन्त्र से नहीं निकलता। यह अर्वाचीन लोगों की कल्पित कल्पना है। जैसे भवानी, ब्रह्माणी, ब्रह्मा और शिव की स्त्रियाँ कल्पना करती हैं, इसी प्रकार यह कल्पना भी सर्वथा वेदबाह्य और अर्वाचीन है ॥१५॥