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हृ॒त्सु पी॒तासो॑ युध्यन्ते दु॒र्मदा॑सो॒ न सुरा॑याम् । ऊध॒र्न न॒ग्ना ज॑रन्ते ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

hṛtsu pītāso yudhyante durmadāso na surāyām | ūdhar na nagnā jarante ||

पद पाठ

हृ॒त्ऽसु । पी॒तासः॑ । यु॒ध्य॒न्ते॒ । दुः॒ऽमदा॑सः । न । सुरा॑याम् । ऊधः॑ । न । न॒ग्नाः । ज॒र॒न्ते॒ ॥ ८.२.१२

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:2» मन्त्र:12 | अष्टक:5» अध्याय:7» वर्ग:19» मन्त्र:2 | मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:12


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शिव शंकर शर्मा

अत्युत्कण्ठा के साथ ईश्वर की प्रार्थना करें।

पदार्थान्वयभाषाः - (न) जैसे (सुरायाम्) मद्यपान करने पर (दुर्मदासः) उन्मत्त पुरुष (युध्यन्ते) लड़ते रहते हैं। तद्वत् (हृत्सु) केवल अपने ही हृदयों में (पीतासः१) पीने खानेवाले अर्थात् केवल आत्मपोषक जन (युध्यन्ते) सदा परस्पर संहार किया करते हैं। भाव यह है कि वे परमात्मा को त्याग परस्पर वैर उत्पन्न किया करते हैं। वे ईश्वरविमुख जन संसार के केवल दुःखभागी हैं, तो ईश्वरभक्त कौन है, इस अपेक्षा में कहते हैं कि (नग्नाः२+जरन्ते) विषयवासनारहित पुरुष ईश्वर की स्तुति प्रार्थना करते हैं। सदा ईश्वर की चिन्ता में रहते हैं। यहाँ दृष्टान्त देते हैं (न) जैसे (ऊधः) मातृस्तन को वत्स चाहते हैं। तद्वत् तपस्वीजन ईश्वर की कामना करते हैं ॥१२॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! विषयवासनाओं में आसक्त पुरुष परमतत्त्व को नहीं समझ सकते, अतः चित्त को विमल बना स्वस्थ हो उसकी स्तुति प्रार्थना करो ॥१२॥
टिप्पणी: १−पीतः=पीतवान्। पायी=पान करनेवाला। लोक में ईदृक् प्रयोग होता है। यथा−“पीतप्रतिबद्धवसाम्” यह कालिदास का प्रयोग है। यहाँ पीतशब्द उपलक्षक है अर्थात् खाने-पीनेवाला इत्यादि अर्थ होते हैं। हृत्सु=हृदयों में। वेदों में शब्दों के विविध प्रकार के प्रयोग कहे गए हैं। जो हृदयों में पीने-खानेवाले हैं, इसका भाषार्थ शरीरपोषक है अर्थात् जो केवल अपने स्वार्थ के लिये खाते-पीते हैं, वे सदा युद्ध करते रहते हैं। २−नग्न−मेना ग्ना इति स्त्रीणाम् ॥ निरुक्त ३।२१ ॥ मेना और ग्ना ये दोनों नाम स्त्रियों के हैं। न विद्यते ग्ना स्त्री यस्य स नग्नः। जिसके स्त्री न हो, उसे नग्न कहते हैं। ब्रह्मचारी तपस्वी विषयवासनारहित। यहाँ ग्ना शब्द उपलक्षक है। स्त्रीसमान अन्यान्य विषयवासनाद्योतक भी ग्ना शब्द है। जैसे वत्स सदा मातृस्तन की कामना करता है, तद्वत् विषयवासनारहित पुरुष परमात्मा की चिन्ता में रहते हैं। ग्ना शब्द स्त्रीवाचक वेदों में बहुत आए हैं। यथा−१−समस्मिन् जायमान आसत ग्नाः ॥ ऋ० १०।९५।७ ॥ (अस्मिन्+जायमाने) जब-जब यज्ञादि शुभकर्म किए जायँ, तब-तब (ग्नाः) स्त्रियाँ भी (सम्+आसत) उस यज्ञ में आकर अच्छे प्रकार बैठें। २−ग्नाभिरच्छिद्रं शरणं सजोषा दुराधर्षं गृणते शर्म यंसत् ॥ ऋ० ६।४९।७ ॥ (ग्नाभिः+सजोषाः) निज पत्नी, कन्या, पुत्रवधू आदि स्त्रियों के साथ प्रसन्न होते हुए मनुष्य (गृणते) परमात्मा की स्तुति करते हैं। ३−..... ग्नास्पत्नीभी रत्नधाभिः सजोषाः ॥ ऋ० ४।३४।७ ॥ विविध रत्नों से सुभूषिता पत्नी पुत्रवधू आदि स्त्रियों के साथ मिलकर परमात्मा की स्तुति प्रार्थना करे। ४−..... ग्नास्पतिर्नो अव्याः ॥ ऋ० २।३८।१० ॥ समस्त स्त्रीजाति का पालक ईश्वर हमारी रक्षा करे। छन्दोवाची ग्ना शब्द−भाष्यकार कहीं-२ ग्ना शब्द का छन्द भी अर्थ करते हैं “छन्दांसि वै ग्ना इति” ऐसा ब्राह्मणग्रन्थ का प्रमाण है। उदाहरण यह है−उत ग्ना व्यन्तु देवपत्नीरिन्द्राण्यग्नाय्यश्विनीराट्। आरोदसी वरुणानी शृणोतु व्यन्तु देवीर्य ऋतुर्जनीनाम् ॥ ऋ० ५।४६।८ ॥ यहाँ कई प्रकार की स्त्रियों के नाम आए हैं। (ग्नाः) सामान्य स्त्रियाँ, (देवपत्नीः) दिव्य स्त्रियाँ, (इन्द्राणी) इन्द्रस्त्री=सेनापति की स्त्री, (अग्नायी) राजदूत की स्त्री, (अश्विनी) घोड़े पर चढ़नेवाली राजस्त्री, (रोदसी) अन्याय को रोकनेवाली स्त्री, (वरुणानी) सम्राट्पत्नी, इत्यादि स्त्रियाँ (व्यन्तु) मिलकर रक्षा करें। यहाँ छन्द अर्थ प्रतीत नहीं होता। तथा देवपत्नी शब्द से कल्पित देवस्त्री अर्थ मानना भी उचित नहीं ॥१२॥
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आर्यमुनि

अब “सोमरस” के गुण कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (पीतासः) पिये हुए सोमरस (हृत्सु) उदर में (युध्यन्ते) पुष्टियुक्त होने से पाकावस्था में पुष्टि आह्लाद आदि अनेक सद्गुणों को उत्पन्न करते हैं (सुरायां) सुरापान से (दुर्मदासः, न) जैसे दुर्मद उत्पन्न होते हैं, वैसे नहीं (नग्नाः) स्तोता लोग (ऊधः, न) आपीन=स्तनमण्डल के समान फल से भरे हुए आपकी (जरन्ते) रसपान के लिये स्तुति करते हैं ॥१२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में सोमरस के गुणवर्णन किये गये हैं कि पान किया हुआ सोमरस पुष्टि आह्लाद तथा बुद्धिवर्द्धकता आदि उत्तम गुण उत्पन्न करता है, सुरापान के समान दुर्मद उत्पन्न नहीं करता अर्थात् जैसे सुरा बुद्धिनाशक तथा शरीरगत बलनाशक होती है, वैसा सोमरस नहीं, इसलिये हे कर्मयोगिन् ! स्तोता लोग उक्त रसपान के लिये आपसे प्रार्थना करते हैं कि कृपा करके इसको ग्रहण करें। और जो सायणादि भाष्यकार तथा यूरोप देश निवासी विलसन्, ग्रिफिथ तथा मैक्समूलर आदि वेद के भाष्यकार सोमरस को एक प्रकार का मदकारक पदार्थ मानते हैं, सो ठीक नहीं, क्योंकि मन्त्र में स्पष्ट लिखा है कि “दुर्मदासो न सुरायां”=सुरा=शराब के पीने से जैसा दुर्मद होता है, वैसा सोमपान से नहीं अर्थात् सोमरस पौष्टिक तथा बुद्धिवर्द्धक और सुरापान बलनाशक तथा बुद्धि कुण्ठित करनेवाला है, इसलिये सोम को सुरा का प्रतिनिधि अथवा दुर्मदकारक मानना उक्त भाष्यकारों की भूल है ॥१२॥
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शिव शंकर शर्मा

अत्युत्कण्ठयेशः प्रार्थनीय इति ध्वन्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - पीतासः=पातारः। यद्वा। पीतं पानमस्त्येषामिति पीताः कृतपानाः। पीतेत्युपलक्षणं पानभक्षणकारकाः। हृत्सु=हृदयेषु। पीताः=स्वकीयेषु हृदयेष्वेव पानभक्षणकारका न तु परार्थदातार इत्यर्थः। ते परमात्मानं विहाय। युध्यन्ते=परस्परं प्रहारं कुर्वते। अत्र दृष्टान्तः। सुरायां पीतायां सत्याम्। दुर्मदासः=दुर्मदा दुरुन्मन्ता जनाः। न=यथा। परस्परं युध्यन्ते। तद्वत्। तर्हि के परमात्मोपासका इत्यपेक्षायामाह−नग्नाः=ग्ना गमनीया स्त्री न विद्यते यस्य स नग्नो ब्रह्मचारी तपस्वी। अत्रापि ग्नाशब्द उपलक्षकः, विषयवासनारहितो नग्न उच्यते। ये नग्नाः=विषयवासनारहिताः सन्ति ते। जरन्ते=परमात्मानं स्तुवन्ति। अत्रापि दृष्टान्तः−ऊधर्न=ऊध इव। गवादेः स्तनमूधो यथा वत्साः सदा अभिलषन्ति तद्वत् ॥१२॥
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आर्यमुनि

अथ सोमगुणाः कथ्यन्ते।

पदार्थान्वयभाषाः - (पीतासः) पीताः सोमाः (हृत्सु) उदरेषु (युध्यन्ते) पौष्टिकत्वात् पाचनाय युध्यन्त इव (सुरायां) सुरायां पीतायां (दुर्मदासः, न) यदा दुर्मदा जायन्ते, तथाऽस्य पाने न जायन्ते (नग्नाः) स्तोतारः (ऊधः, न) आपीनमिव फलपूर्णं त्वां (जरन्ते) स्तुवन्ति पातुम् ॥१२॥