अब “सोमरस” के गुण कथन करते हैं।
पदार्थान्वयभाषाः - (पीतासः) पिये हुए सोमरस (हृत्सु) उदर में (युध्यन्ते) पुष्टियुक्त होने से पाकावस्था में पुष्टि आह्लाद आदि अनेक सद्गुणों को उत्पन्न करते हैं (सुरायां) सुरापान से (दुर्मदासः, न) जैसे दुर्मद उत्पन्न होते हैं, वैसे नहीं (नग्नाः) स्तोता लोग (ऊधः, न) आपीन=स्तनमण्डल के समान फल से भरे हुए आपकी (जरन्ते) रसपान के लिये स्तुति करते हैं ॥१२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में सोमरस के गुणवर्णन किये गये हैं कि पान किया हुआ सोमरस पुष्टि आह्लाद तथा बुद्धिवर्द्धकता आदि उत्तम गुण उत्पन्न करता है, सुरापान के समान दुर्मद उत्पन्न नहीं करता अर्थात् जैसे सुरा बुद्धिनाशक तथा शरीरगत बलनाशक होती है, वैसा सोमरस नहीं, इसलिये हे कर्मयोगिन् ! स्तोता लोग उक्त रसपान के लिये आपसे प्रार्थना करते हैं कि कृपा करके इसको ग्रहण करें। और जो सायणादि भाष्यकार तथा यूरोप देश निवासी विलसन्, ग्रिफिथ तथा मैक्समूलर आदि वेद के भाष्यकार सोमरस को एक प्रकार का मदकारक पदार्थ मानते हैं, सो ठीक नहीं, क्योंकि मन्त्र में स्पष्ट लिखा है कि “दुर्मदासो न सुरायां”=सुरा=शराब के पीने से जैसा दुर्मद होता है, वैसा सोमपान से नहीं अर्थात् सोमरस पौष्टिक तथा बुद्धिवर्द्धक और सुरापान बलनाशक तथा बुद्धि कुण्ठित करनेवाला है, इसलिये सोम को सुरा का प्रतिनिधि अथवा दुर्मदकारक मानना उक्त भाष्यकारों की भूल है ॥१२॥