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यः स॒मिधा॒ य आहु॑ती॒ यो वेदे॑न द॒दाश॒ मर्तो॑ अ॒ग्नये॑ । यो नम॑सा स्वध्व॒रः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yaḥ samidhā ya āhutī yo vedena dadāśa marto agnaye | yo namasā svadhvaraḥ ||

पद पाठ

यः । स॒म्ऽइधा॑ । यः । आऽहु॑ती । यः । वेदे॑न । द॒दाश॑ । मर्तः॑ । अ॒ग्नये॑ । यः । नम॑सा । सु॒ऽअ॒ध्व॒रः ॥ ८.१९.५

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:19» मन्त्र:5 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:29» मन्त्र:5 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:5


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शिव शंकर शर्मा

अग्निहोत्रविधान करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - परमात्मा के उद्देश्य से अग्निहोत्रादि कर्म कर्त्तव्य हैं, यह उपदेश इस ऋचा से देते हैं। जैसे (यः+मर्तः) जो मरणधर्मी मनुष्य (अग्नये) इस भौतिक अग्नि की (समिधा) चन्दन, पलाशादि समिधा से (ददाश) सेवता है (यः) जो (आहुती) घृतादिकों की आहुतियों से सेवता है (यः) जो (वेदेन) वेदाध्ययन से सेवता है और जो (स्वध्वरः) शुभकर्मकारी होता हुआ (नमसा) विविध अन्नों=सामग्रियों से सेवता है (तस्य+इत+अर्वन्तः) उसके घोड़े आदि होते हैं, यह अगले मन्त्र से सम्बन्ध रखता है ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस ऋचा से तीन कर्तव्य दिखलाते हैं १−अग्निहोत्र, २−वेदाध्ययन और ३−दान, ये अवश्य और नित्य कर्त्तव्य हैं ॥५॥
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आर्यमुनि

अब तीन प्रकार के यज्ञ करने का विधान कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (यः, मर्तः) जो मनुष्य (समिधा) काष्ठादि द्रव्य से अग्नि प्रदीप्त करके (यः) जो (आहुती) आज्यादि की आहुति देकर (यः, वेदेन) जो वेदमन्त्रों से (यः, स्वध्वरः) जो शोभनयज्ञवाला (नमसा) हविपदार्थ से यज्ञसंसाधन करके (अग्नये, ददाश) अग्नि=परमात्मा का परिचरण करे ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में तीन प्रकार के यज्ञों का विधान किया है अर्थात् (१) शास्त्रोक्त विधि अनुसार यज्ञीय काष्ठ से अग्नि प्रदीप्त करके आज्य=घृतादि की आहुति देना (२) अन्न तथा धनादि से विद्वानों वा स्वयंविदों का सत्कार करना (३) वेदाभ्यास द्वारा आत्मा में ईश्वरीय ज्ञान का प्रकाश करके उच्चता वा पौरुष उत्पन्न करना, इसी का नाम ज्ञानयज्ञ है अर्थात् आत्मिकज्ञान की उन्नति करना। इन तीनों यज्ञों द्वारा जो परमात्मा का परिचरण करता है, उसको अग्रिम मन्त्र में लिखे अनुसार फल की प्राप्ति होती है ॥५॥
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शिव शंकर शर्मा

अग्निहोत्रविधानं करोति।

पदार्थान्वयभाषाः - यो मर्तः=मनुष्यः। परमात्मानमुद्दिश्य। अग्नये=भौतिकाग्नये। समिधा=चन्द्रनपलाशादिना इध्मेन। ददाश=सेवते। यः। आहुती=आहुतिभिर्घृतादीनाम्। सेवते। यो वेदेन=वेदाध्ययनेन सेवते। यः। स्वध्वरः=सुयज्ञः सन्। नमसा=विविधान्नैः। सेवते। तस्येदर्वन्त इत्युत्तरेण सम्बन्धः ॥५॥
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आर्यमुनि

अथ त्रिविधानां यज्ञानां विधिरुच्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (यः, मर्तः) यो मनुष्यः (समिधा) समिन्धसंकरणेन काष्ठादिना (यः) यश्च (आहुती) आज्यादिनाऽऽहुत्या (यः, वेदेन) यो वा वेदमन्त्रेण (यः, स्वध्वरः) यश्च शोभनयज्ञः (नमसा) हविषा यज्ञं संसाध्य (अग्नये, ददाश) परमात्मानं परिचरति, तस्येत्याद्युत्तरेण सम्बन्धः ॥५॥