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तमाग॑न्म॒ सोभ॑रयः स॒हस्र॑मुष्कं स्वभि॒ष्टिमव॑से । स॒म्राजं॒ त्रास॑दस्यवम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tam āganma sobharayaḥ sahasramuṣkaṁ svabhiṣṭim avase | samrājaṁ trāsadasyavam ||

पद पाठ

तम् । आ । अ॒ग॒न्म॒ । सोभ॑रयः । स॒हस्र॑ऽमुष्कम् । सु॒ऽअ॒भि॒ष्टिम् । अव॑से । स॒म्ऽराज॑न् । त्रास॑दस्यवम् ॥ ८.१९.३२

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:19» मन्त्र:32 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:35» मन्त्र:2 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:32


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शिव शंकर शर्मा

पुनः वही विषय आ रहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - (सोभरयः) विद्या से और धनादिकों से प्रजाओं को भरणपोषण करनेवाले हम उपासकगण (अवसे) रक्षा के लिये (तम्) उस परमात्मा के निकट (आ+अगन्म) प्राप्त हुए हैं। जिसके (सहस्रमुष्कम्) अनन्त तेज हैं, (स्वभिष्टिम्) जो शोभन अभीष्टदेव हैं, (सम्राजम्) जो अच्छे प्रकार सर्वत्र विराजमान हैं और (त्रासदस्यवम्) और जिनसे दुष्टगण सदा डरते हैं, ऐसे परमदेव को हम लोग प्राप्त हुए हैं ॥३२॥
भावार्थभाषाः - हम मनुष्य कपट को त्याग उसके निकट पहुँचें, तब ही कल्याणभागी हो सकेंगे ॥३२॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सोभरयः) सम्यग्ज्ञान का भरण करनेवाले हम लोग (अवसे) रक्षा के लिये (सहस्रमुष्कम्) अनेक रत्नोंवाले (स्वभिष्टिम्) सुन्दर यज्ञवाले (सम्राजम्) सम्राट् (त्रासदस्यवम्) त्रसदस्युओं=दस्युओं को प्राप्त करानेवालों के निर्माता (तम्) उस परमात्मा को (आगन्म) प्राप्त होते हैं ॥३२॥
भावार्थभाषाः - जिसका यज्ञ परमानन्दमय है, जो सब सम्राटों का सम्राट् तथा अनेक शूरवीरों का उत्पादक है, वही सबका परमप्राप्तव्य है अर्थात् जो परमात्मा वेदविरोधी दस्युओं को त्रास देनेवाला, विविध पदार्थों का स्वामी और जो हमारे कल्याणार्थ यज्ञों का निर्माता है, वही हमको प्रयत्न से प्राप्त करने योग्य है ॥३२॥
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शिव शंकर शर्मा

पुनस्तदनुवर्त्तते।

पदार्थान्वयभाषाः - सोभरयः=विद्यया धनादिभिश्च शोभनभरणकर्त्तार उपासका वयम्। सम्प्रति। अवसे=रक्षायै। तमीशम्। आ+अगन्म=आगताः स्मः=प्राप्ता अभूम। कीदृशम्। सहस्रमुष्कम्=मुष्णन्ति तमांसि हरन्तीति मुष्काणि तेजांसि। सहस्रं मुष्काणि यस्य तम्। स्वभिष्टिम्=स्वभीष्टं शोभनेष्टम्। सम्राजम्=सम्यक् शोभमानम्। पुनः। त्रासदस्यवम्=त्रस्यन्ति बिभ्यति दस्यवो दुष्टा यस्मात्। दुष्टनियन्तारम् ॥३२॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सोभरयः) सुज्ञानं विभृतवन्तो वयम् (अवसे) रक्षायै (सहस्रमुष्कम्) सहस्ररत्नम् (स्वभिष्टिम्) सुयज्ञम् (सम्राजम्) सम्यग्राजमानम् (त्रासदस्यवम्) त्रसदस्यूनामीश्वरम् (तम्) तं परमात्मानम् (आगन्म) प्राप्नुमः ॥३२॥