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प्र सो अ॑ग्ने॒ तवो॒तिभि॑: सु॒वीरा॑भिस्तिरते॒ वाज॑भर्मभिः । यस्य॒ त्वं स॒ख्यमा॒वर॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra so agne tavotibhiḥ suvīrābhis tirate vājabharmabhiḥ | yasya tvaṁ sakhyam āvaraḥ ||

पद पाठ

प्र । सः । अ॒ग्ने॒ । तव॑ । ऊ॒तिऽभिः॑ । सु॒ऽवीरा॑भिः । ति॒र॒ते॒ । वाज॑भर्मऽभिः । यस्य॑ । त्वम् । स॒ख्यम् । आ॒ऽवरः॑ ॥ ८.१९.३०

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:19» मन्त्र:30 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:34» मन्त्र:5 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:30


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शिव शंकर शर्मा

पुनः वही विषय आ रहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे सर्वगत देव ! (यस्य) जिस उपासक की (सख्यम्) मित्रता को (आवरः) आप स्वीकार करते हैं, (सः) वह (तव) आपकी (ऊतिभिः) रक्षाओं से (प्रतिरते) जगत् में वृद्धि पाता है। जिन रक्षाओं से (सुवीराभिः) कुल में वीर उत्पन्न हैं। पुनः। (वाजभर्मभिः) जिनसे ज्ञान-विज्ञान आदिकों का भरण होता है ॥३०॥
भावार्थभाषाः - उस देव की जिस पर कृपा होती है, वही धन-धान्य से सम्पन्न होकर इस लोक में प्रशंसनीय होता है ॥३०॥
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आर्यमुनि

अब परमात्मा के भक्त को सुखप्राप्ति कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे परमात्मन् ! (सः) वह मनुष्य (सुवीराभिः) सुन्दरवीरोंवाली (वाजभर्मभिः) बल के आधिक्य सहित (तव, ऊतिभिः) आपकी रक्षाओं से (प्रतिरते) आपत्तिओं को तर जाता है (यस्य) जिसकी (सख्यम्) मैत्री को (त्वम्) आप (आवरः) स्वीकार करते हैं ॥३०॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा अपने उपासकों को प्रसिद्ध होने के लिये अनेक शौर्यादि शक्ति प्रदान करता है अर्थात् जो परमात्मा का मित्र है, या यों कहो कि जो परमात्मा की आज्ञापालन करता हुआ उसकी उपासना में निरन्तर तत्पर है, वह सब आपत्तियों तथा कष्टों से बचकर सुख अनुभव करता है ॥३०॥
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शिव शंकर शर्मा

पुनस्तदनुवर्त्तते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे अग्ने=सर्वगतदेव ! त्वम्। यस्योपासकस्य। सख्यम्= सखित्वम्=मित्रत्वम्। आवरः=अभिवृणोषि=स्वीकरोषि। स उपासकः। तव ऊतिभिः=रक्षाभिः। प्रतिरते=जगति प्रवर्धते। कीदृशीभिरूतिभिः। सुवीराभिः=सुवीरसन्तानोपेताभिः। पुनः। वाजभर्मभिः=वाजानामन्नादीनां भर्त्रीभिः ॥३०॥
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आर्यमुनि

अथोपासकाय सुखप्राप्तिरुच्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे परमात्मन् ! (सः) स जनः (सुवीराभिः) सुवीरयुक्ताभिः (वाजभर्मभिः) बलातिशयसहिताभिः (तव, ऊतिभिः) तव रक्षाभिः (प्रतिरते) प्रतिरत्यापदम् (यस्य) यस्य जनस्य (सख्यम्) मैत्रीम् (आवरः, त्वम्) त्वं स्वीकरोषि ॥३०॥