वांछित मन्त्र चुनें

तव॒ क्रत्वा॑ सनेयं॒ तव॑ रा॒तिभि॒रग्ने॒ तव॒ प्रश॑स्तिभिः । त्वामिदा॑हु॒: प्रम॑तिं वसो॒ ममाग्ने॒ हर्ष॑स्व॒ दात॑वे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tava kratvā saneyaṁ tava rātibhir agne tava praśastibhiḥ | tvām id āhuḥ pramatiṁ vaso mamāgne harṣasva dātave ||

पद पाठ

तव॑ । क्रत्वा॑ । स॒ने॒य॒म् । तव॑ । रा॒तिऽभिः । अग्ने॑ । तव॑ । प्रश॑स्तिऽभिः । त्वाम् । इत् । आ॒हुः॒ । प्रऽम॑तिम् । व॒सो॒ इति॑ । मम॑ । अ॒ग्ने॒ । हर्ष॑स्व । दात॑वे ॥ ८.१९.२९

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:19» मन्त्र:29 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:34» मन्त्र:4 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:29


बार पढ़ा गया

शिव शंकर शर्मा

पुनः वही विषय आ रहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे सर्वगतदेव ईश ! मैं उपासक (तव) तेरी ही (क्रत्वा) सेवारूप कर्म से (सनेयम्) तुझे सेऊँ, (तव) तेरे (रातिभिः) दानों से तुझे ही सेऊँ, (तव) तेरी ही (प्रशस्तिभिः) प्रशंसाओं से तुझे ही सेऊँ, क्योंकि (त्वाम्) तुझको ही तत्त्ववित् पुरुष (प्रमतिम्) परमज्ञानी और रक्षक (आहुः) कहते हैं। अतः (वसो) हे परमोदार धनस्वरूप (अग्ने) परमात्मन् ! (मम) मुझे (दातवे) देने के लिये (हर्षस्व) प्रसन्न हो ॥२९॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य को उचित है कि वह सर्वदशा में ईश्वर की आज्ञा पर चले, तब ही वह कल्याण का मुखावलोकन कर सकता है ॥२९॥
बार पढ़ा गया

आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे परमात्मन् ! (तव, क्रत्वा) आप ही के कर्म से (सनेयम्) आपका सेवन करें (तव, रातिभिः) आपके दानों से (प्रशस्तिभिः, तव) और आपकी स्तुतिओं से आपका सेवन करें (वसो) हे व्यापक ! (प्रमतिम्, त्वाम्, इत्) ब्रह्मवादी लोग प्रकृष्टज्ञानवाला आप ही को (आहुः) कहते हैं (अग्ने) हे परमात्मन् ! (मम, दातवे) मेरे दान के लिये (हर्षस्व) आप अनुकूल रहें ॥२९॥
भावार्थभाषाः - वह सर्वज्ञ परमात्मा जो सबका पालक पोषक तथा रक्षक है, वही अपने उपासकों को सब भोग्यपदार्थ तथा सब प्रकार का ऐश्वर्य्य प्रदान करता है अर्थात् सब मनुष्यों को जो ऐश्वर्य्य प्राप्त है, वह सब ईश्वरदत्त है, ऐसा मानकर उसके दिये हुए धन से उसका सेवन करना चाहिये, या यों कहो कि परमात्मदत्त धन को उसकी वाणी वेदप्रचार में व्यय करना चाहिये, जिससे प्रजाजन परमात्मा के गुणों को भले प्रकार जानकर निरन्तर उसका सेवन करें अथवा प्रजाजनों की उन्नतिविषयक अन्य कार्यों में व्यय करना चाहिये, पाप कर्मों में नहीं, क्योंकि पाप कर्मों में व्यय किया हुआ धन शीघ्र ही नाश हो जाता है और पापी पुरुष महासंकट में पड़कर महान् दुःख भोगता है, अतएव उचित है कि परमात्मा के दिये हुए धन को सदा उत्तम काम में व्यय करो, मन्द कर्मों में नहीं ॥२९॥
बार पढ़ा गया

शिव शंकर शर्मा

पुनस्तदनुवर्त्तते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे अग्ने=सर्वगतदेव ! अहमुपासकः। तव क्रत्वा=सेवारूपेण कर्मणा। सनेयम्=त्वामेव भजेयम्। तव रातिभिः=दानैः। त्वां भजेयम्। तव प्रशस्तिभिः=प्रशंसनैः त्वां भजेयम्। यतः। तत्त्वविदः पुरुषाः। त्वामित्=त्वामेव। प्रमतिम्=प्रकृष्टबुद्धिं सुरक्षकम्। आहुः=कथयन्ति। अतः हे वसो=अग्ने ! मम=मह्यम्। दातवे=दातुम्। हर्षस्व=प्रसीद ॥२९॥
बार पढ़ा गया

आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे परमात्मन् ! (तव, क्रत्वा) त्वत्सम्बन्धिकर्मणा (सनेयम्) त्वां भजेयम् (तव, रातिभिः) तव दानैः (तव, प्रशस्तिभिः) तव स्तुतिभिश्च सनेयम् (वसो) हे व्यापक ! (प्रमतिम्, त्वाम्, इत्) प्रज्ञानवन्तं त्वामेव (आहुः) वदन्ति ब्रह्मवादिनः (अग्ने) हे परमात्मन् ! (मम, दातवे) मम दानाय (हर्षस्व) अनुकूलो भव ॥२९॥