पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे परमात्मन् ! (तव, क्रत्वा) आप ही के कर्म से (सनेयम्) आपका सेवन करें (तव, रातिभिः) आपके दानों से (प्रशस्तिभिः, तव) और आपकी स्तुतिओं से आपका सेवन करें (वसो) हे व्यापक ! (प्रमतिम्, त्वाम्, इत्) ब्रह्मवादी लोग प्रकृष्टज्ञानवाला आप ही को (आहुः) कहते हैं (अग्ने) हे परमात्मन् ! (मम, दातवे) मेरे दान के लिये (हर्षस्व) आप अनुकूल रहें ॥२९॥
भावार्थभाषाः - वह सर्वज्ञ परमात्मा जो सबका पालक पोषक तथा रक्षक है, वही अपने उपासकों को सब भोग्यपदार्थ तथा सब प्रकार का ऐश्वर्य्य प्रदान करता है अर्थात् सब मनुष्यों को जो ऐश्वर्य्य प्राप्त है, वह सब ईश्वरदत्त है, ऐसा मानकर उसके दिये हुए धन से उसका सेवन करना चाहिये, या यों कहो कि परमात्मदत्त धन को उसकी वाणी वेदप्रचार में व्यय करना चाहिये, जिससे प्रजाजन परमात्मा के गुणों को भले प्रकार जानकर निरन्तर उसका सेवन करें अथवा प्रजाजनों की उन्नतिविषयक अन्य कार्यों में व्यय करना चाहिये, पाप कर्मों में नहीं, क्योंकि पाप कर्मों में व्यय किया हुआ धन शीघ्र ही नाश हो जाता है और पापी पुरुष महासंकट में पड़कर महान् दुःख भोगता है, अतएव उचित है कि परमात्मा के दिये हुए धन को सदा उत्तम काम में व्यय करो, मन्द कर्मों में नहीं ॥२९॥