यद॑ग्ने॒ मर्त्य॒स्त्वं स्याम॒हं मि॑त्रमहो॒ अम॑र्त्यः । सह॑सः सूनवाहुत ॥
अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
yad agne martyas tvaṁ syām aham mitramaho amartyaḥ | sahasaḥ sūnav āhuta ||
पद पाठ
यत् । अ॒ग्ने॒ । मर्त्यः॑ । त्वम् । स्याम् । अ॒हम् । मि॒त्र॒ऽम॒हः॒ । अम॑र्त्यः । सह॑सः । सू॒नो॒ इति॑ । आ॒ऽहु॒त॒ ॥ ८.१९.२५
ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:19» मन्त्र:25
| अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:33» मन्त्र:5
| मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:25
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शिव शंकर शर्मा
इससे प्रार्थना दिखलाते हैं।
पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे सर्वगत ! (मित्रमहः) हे सब जीवों से पूज्यतेजस्क ! (सहसः+सूनो) जगदुत्पादक (आहुत) हे सर्वपूजित ईश ! (यद्) यदि (मर्त्यः) मरणधर्मी (अहम्) मैं (त्वम्+स्याम्) तू होऊँ अर्थात् जैसा तू है, वैसा ही यदि मैं भी हो जाऊँ, तो (अमर्त्यः) न मरनेवाला देव मैं भी बन जाऊँ ॥२५॥
भावार्थभाषाः - ईश्वर की उपासना से मनुष्यों में उसके गुण आते हैं, अतः वह उपासक उपास्य के समान माना जाता है और मनुष्य की इच्छा भी बलवती होती है, अतः तदनुसार यह प्रार्थना है ॥२५॥
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आर्यमुनि
पदार्थान्वयभाषाः - (मित्रमहः) हे अनुकूल तेजवाले (सहसः, सूनो) अतिप्रयत्न से साक्षात्कार होने से बल के पुत्र के समान (आहुत) सब उपासकों से सेवित (अग्ने) परमात्मन् ! (यत्, मर्त्यः, अहम्) यदि मरणशील मैं आपकी उपासना करते-२ (त्वम्, स्याम्) आप जैसा हो जाऊँ तो (अमर्त्यः) मरणरहित हो जाऊँ ॥२५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में परमात्मोपासक को परमात्मा के सदृश हो जाना विधान किया है अर्थात् परमात्मसेवी उसका ध्यान करते-२ सर्व सांसारिक पदार्थों का तत्वज्ञ होकर परमानन्द का अनुभव करता हुआ अन्त में माया से निर्मुक्त होकर परमपद को प्राप्त होता है, यहाँ “अहं त्वं स्याम्”=मैं आप हो जाऊँ, यह अभेदलक्षणा द्वारा किया है, वास्तविक नहीं, जैसे “तत्त्वमसि” इस वाक्य में अथवा “सिंहो माणवकः”=यह माणवक सिंह है, इस वाक्य में वर्णन किया है अर्थात् उपासक परमात्मा के समान गुणोंवाला होता है, परमात्मा नहीं ॥२५॥
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शिव शंकर शर्मा
प्रार्थनां दर्शयति।
पदार्थान्वयभाषाः - हे अग्ने=सर्वगत ! हे मित्रमहः=मित्रैर्जीवैः पूज्यतेजस्क ! हे सहसः सूनो=सहसा बलेन जातं सहो जगत्। यद्वा। सहन्ते जीवाः कर्माणि कर्मफलानि यत्र भुञ्जते तत् सहः=संसारः। सूयते उत्पादयतीति सूनुः=उत्पादकः। हे जगदुत्पादक ईश ! हे आहुत=सर्वपूजित ! यद्=यदि। मर्त्यः=मरणधर्मा। अहम्। त्वं स्याम्=त्वदुपासनया त्वद्रूपमापन्नो भवेयम्। तर्हि। अहमपि। अमर्त्यो=मरणरहितो देव एव स्याम् ॥२५॥
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आर्यमुनि
पदार्थान्वयभाषाः - (मित्रमहः) हे अप्रतिकूलतेजः (सहसः, सूनो) सकृत्प्रयत्नेनोत्पाद्य (आहुत) सर्वैस्तर्पित (अग्ने) परमात्मन् ! (यत्, मर्त्यः, अहम्) यदि मरणधर्माहं त्वदुपासनया (त्वम्, स्याम्) त्वद्रूपः स्याम् तर्हि (अमर्त्यः) मरणरहितः स्याम् ॥२५॥