अब यज्ञद्वारा उत्तम प्रजाओं का उत्पन्न होना कथन करते हैं।
पदार्थान्वयभाषाः - (यदि) यदि (अग्निः) परमात्मा (घृतेभिः, आहुतः) आज्याहुति द्वारा (आहुतः) सेवन किया जाय तो (उत्, च) ऊर्ध्वदेश में (अव, च) और अधोदेश में (वाशीम्, भरते) सुबुद्धि को उत्पन्न करके वाणी को पुष्ट करता है, जैसे (असुरः) असु=प्राणों को देनेवाला सूर्य (निर्णिजम्) सप्तविध रूपों को पुष्ट करता है ॥२३॥
भावार्थभाषाः - सुबुद्धि उत्पन्न करने अर्थात् बुद्धि को उत्तम बनाने के दो ही उपाय हो सकते हैं, एक−शुद्ध रसों का सेवन करना, दूसरा−विद्वानों की सङ्गति द्वारा सत्कर्मों में मन लगाना और ये दोनों यज्ञसाध्य हैं। घृतादि पवित्र आहुतियों द्वारा अन्तरिक्ष में मेघशुद्धि से सुन्दर वृष्टि होती है तथा भूलोक में वायु आदि पदार्थ शुद्ध होते हैं, जिससे पवित्र रसों की उत्पत्ति होकर उनके सेवन द्वारा सुबुद्धि होती है, इसी अभिप्राय से मनु जी ने कहा किः−अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते।आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नं ततः प्रजाः॥ मनु० ३।७५शास्त्रोक्त विधि से अग्नि में दी हुई आहुति अन्तरिक्षलोक को प्राप्त होती, अन्तरिक्ष से पवित्र वृष्टि, वृष्टि से पवित्र अन्न और पवित्र अन्न से पवित्र प्राणीजात उत्पन्न होते हैं, अतएव उचित है कि मेधा=पवित्र बुद्धि सम्पादन करने के लिये पुरुष को नित्य यज्ञ का अनुष्ठान करना चाहिये ॥२३॥