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विभू॑तरातिं विप्र चि॒त्रशो॑चिषम॒ग्निमी॑ळिष्व य॒न्तुर॑म् । अ॒स्य मेध॑स्य सो॒म्यस्य॑ सोभरे॒ प्रेम॑ध्व॒राय॒ पूर्व्य॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vibhūtarātiṁ vipra citraśociṣam agnim īḻiṣva yanturam | asya medhasya somyasya sobhare prem adhvarāya pūrvyam ||

पद पाठ

विभू॑तऽरातिम् । वि॒प्र॒ । चि॒त्रऽशो॑चिषम् । अ॒ग्निम् । ई॒ळि॒ष्व॒ । य॒न्तुर॑म् । अ॒स्य । मेघ॑स्य । सो॒म्यस्य॑ । सो॒भ॒रे॒ । प्र । ई॒म् । अ॒ध्व॒राय॑ । पूर्व्य॑म् ॥ ८.१९.२

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:19» मन्त्र:2 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:29» मन्त्र:2 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:2


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शिव शंकर शर्मा

ईश का वर्णन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (विप्र) हे मेधाविन् ! (सोभरे) हे अच्छे प्रकार भरणकर्त्ता विद्वन् आप (अध्वराय) यज्ञ के लिये (अग्निम्+ईम्) परमात्मा की ही (प्र+ईळिष्व) स्तुति करें। जो वह (विभूतरातिम्) इस संसार में नानाप्रकार से दान दे रहा है। (चित्रशोचिषम्) जिसका तेज आश्चर्य्यजनक है। जो (अस्य) इस दृश्यमान (सोम्यस्य) सुन्दर विविध पदार्थयुक्त (मेधस्य) संसाररूप महासङ्गम का (यन्तुरम्) नियामक=शासक है और (पूर्व्यम्) सनातन है ॥२॥
भावार्थभाषाः - यज्ञ में केवल परमदेव ही पूज्य, स्तुत्य और प्रार्थनीय है, क्योंकि वही चेतन देव है। उसी की यह संपूर्ण सृष्टि है ॥२॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सोभरे, विप्र) हे भलीभाँति अज्ञानों के हरने अथवा प्रजाओं को भरनेवाले विद्वन् ! आप (अध्वराय) हिंसारहित यज्ञ की प्राप्ति के लिये (विभूतरातिम्) बहुत पदार्थों को देने में समर्थ (चित्रशोचिषम्) आश्चर्यमय तेजवाले (अस्य, सोम्यस्य, मेधस्य) इस सोममय याग के (यन्तुरम्) नियन्ता (पूर्व्यम्) अनादि (अग्निम्) परमात्मा को (ईडिष्व) स्तवन करो ॥२॥
भावार्थभाषाः - “सुष्ठु हरत्यज्ञानं बिभर्त्ति वा जनानिति सोभरिः”=जो भले प्रकार अज्ञानों का नाश करे अथवा प्रजा का भरण-पोषण करे, उसको “सोभरि” कहते हैं। हृ वा भृ धातु से औणादिक इन् प्रत्यय होकर “उकार” को “ओकार” हो गया है और हृ धातुपक्ष में “हृग्रहोर्भश्छन्दसि” इस वार्तिक से ह को भ हो जाता है। सोभरि विद्वान् के प्रति उपदेश है कि यज्ञारम्भ में यज्ञनियन्ता परमात्मा की स्तुति करके सर्वदा हिंसारहित यज्ञ करने की चेष्टा करते रहो, क्योंकि वह परमात्मा हिंसारहित यज्ञवालों को पर्याप्त चिरस्थायी सौभाग्य प्राप्त कराता है और हिंसक याज्ञिकों की सम्पत्ति विपत्तिमय तथा शीघ्र नाशकारी होती है ॥२॥
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शिव शंकर शर्मा

ईशं वर्णयति।

पदार्थान्वयभाषाः - हे विप्र=मेधाविन् ! सोभरे=सुभर्तः। अग्निम्=परमदेवम्। ईळिष्व=स्तुहि=प्रार्थयस्व। कीदृशं विभूतरातिम्=बहुदानम्। चित्रशोचिषम्=विचित्रतेजस्कमद्भुततेजस्कम्। अस्य+सोम्यस्य= सुन्दरस्य=विविधपदार्थयुक्तस्य। मेधस्य=संसारसंगमस्य। यन्तुरम्। नियामकम्=शासकम्। पुनः। पूर्व्यम्=पुरातनम्=सनातनम्। ईदृशमग्निम्। ईम्=एवम्। आग्निमेव नान्यं देवम्। अध्वराय=यज्ञाय। प्र+ईळिष्व ॥२॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सोभरे, विप्र) हे सुष्ठु अज्ञानानां हर्तः प्रजानां भर्त्तर्वा मेधाविन् ! (अध्वराय) अहिंसयज्ञाय (विभूतरातिम्) बहुतरवानम् (चित्रशोचिषम्) विचित्रतेजस्कम् (अस्य, सोम्यस्य, मेधस्य) अस्य सोमयागस्य (यन्तुरम्) नियन्तारम् (पूर्व्यम्) अनादिम् (अग्निम्) परमात्मानम् (ईडिष्व) स्तुहि ॥२॥