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स॒मिधा॒ यो निशि॑ती॒ दाश॒ददि॑तिं॒ धाम॑भिरस्य॒ मर्त्य॑: । विश्वेत्स धी॒भिः सु॒भगो॒ जनाँ॒ अति॑ द्यु॒म्नैरु॒द्न इ॑व तारिषत् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

samidhā yo niśitī dāśad aditiṁ dhāmabhir asya martyaḥ | viśvet sa dhībhiḥ subhago janām̐ ati dyumnair udna iva tāriṣat ||

पद पाठ

स॒म्ऽइधा॑ । यः । निऽशि॑ती । दाश॑त् । अदि॑तिम् । धाम॑ऽभिः । अ॒स्य॒ । मर्त्यः॑ । विश्वा॑ । इत् । सः । धी॒भिः । सु॒ऽभगः॑ । जना॑न् । अति॑ । द्यु॒म्नैः । उ॒द्गःऽइ॑व । ता॒रि॒ष॒त् ॥ ८.१९.१४

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:19» मन्त्र:14 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:31» मन्त्र:4 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:14


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शिव शंकर शर्मा

उपासना का फल दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (यः+मर्त्यः) जो मनुष्य (निशिती) अत्यन्त तीव्र और (समिधा) प्रदीप्त भक्ति से और (अस्य) उसी के दिए हुए (धामभिः) धारण-पोषण करनेवाले प्राणसहित सर्वेन्द्रियों से (अदितिम्) अखण्ड अविनश्वर परमात्मा की (दाशत्) सेवा करता है, (सः) वह (धीभिः) बुद्धियों से भूषित होकर (सुभगः) देखने में सुन्दर और सर्वप्रिय होता है और उन ही बुद्धियों के द्वारा और (द्युम्नैः) द्योतमान यशों से (विश्वा+इत्) सब ही (जनान्) मनुष्यों को (अतितारिषत्) अतिशय पार कर जाता है अर्थात् सब जनों से अतिशय बढ़ जाता है। यहाँ दृष्टान्त देते हैं−(उद्नः+इव) जैसे नौका की सहायता से मनुष्य नदियों के पार उतरता है ॥१४॥
भावार्थभाषाः - प्रात्यहिक शुभकर्मों और ईश्वर की आज्ञापालन से मनुष्य की परमोन्नति होती है ॥१४॥
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आर्यमुनि

अब मनुष्य को इस भवसागररूप संसार से पार होने का उपाय कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो मनुष्य (निशिती, समिधा) गार्हपत्यादि भौतिकाग्नि को तीक्ष्ण करनेवाली समिधाओं से योगसाधन द्वारा (अदितिम्) दैन्यरहित परमात्मा का (दाशत्) परिचरण करता है, वह (मर्त्यः) मनुष्य (अस्य, धामभिः) इस परमात्मा की महिमा से (सुभगः) सौभाग्यवान् होकर (धीभिः) स्वकर्मों द्वारा (विश्वा, इत्, जनान्) सभी प्रतिपक्षी मनुष्यों को (उद्गः, इव) नौका द्वारा गम्भीर जलों के समान (द्युम्नैः) दिव्ययशों के सहित (अतितारिषत्) अवतीर्ण हो जाता है ॥१४॥
भावार्थभाषाः - जिस प्रकार मनुष्य नौका द्वारा गम्भीर से गम्भीर नदी नदों को, जल अथवा जलजन्तुजनित क्लेश न सहता हुआ पार करता है, इसी प्रकार संसाररूपी महासागर को परमात्मरूपनौकाश्रित होकर सुखेन पार कर सकता है। जिस प्रकार काष्ठादिनिर्मित नौका काष्ठादिनिर्मित क्षेपणी=चलाने के दण्डों से चलाई जाती है, उसी प्रकार परमात्मरूप नौका के चलाने के लिये ज्ञानयज्ञमय तथा कार्ययज्ञमय दो क्षेपणी हैं, जिनका अनुष्ठान करता हुआ पुरुष सुखपूर्वक इस संसाररूप भवसागर से पार होकर अमृतपद को प्राप्त होता है ॥१४॥
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शिव शंकर शर्मा

उपासनाफलं दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः - यो मर्त्यः=मनुष्यः। निशिती=निशित्या=नितरां तीव्रया। समिधा=समिद्धया संदीप्तया भक्त्या। पुनः। अस्य=अस्यैव प्रदत्तैः। धामभिः। धारकैः। सप्राणैः=सर्वेन्द्रियैः। अदितिमखण्डमविनश्वरं देवम्। दाशत्=परिचरति=सेवते। स धीभिर्बुद्धिभिः। सुभगः=सुन्दरः सर्वप्रियो भवति। तथा। द्युम्नैः=द्योतमानैर्यशोभिः। विश्वा+इत्=विश्वान् सर्वानेव। जनान्। उद्न इव=उदकानीव। अतितारिषत्=अतितरति अतिक्रामति ॥१४॥
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आर्यमुनि

अथ संसारसागरस्य पारप्राप्तये उपायः कथ्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) यश्च (निशिती, समिधा) भौतिकाग्निप्रज्वालकेन काष्ठेन यागं संसाध्य (अदितिम्) दैन्यरहितं परमात्मानं (दाशत्) परिचरेत् (मर्त्यः) स जनः (अस्य, धामभिः) अस्य महिमभिः (सुभगः) स्वैश्वर्यः सन् (धीभिः) स्वकर्मभिः (विश्वा, इत्, जनान्) सर्वानेव जनान् (उद्गः, इव) उदकानीव (द्युम्नैः) यशोभिः सह (अतितारिषत्) अतितरेत् ॥१४॥