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विप्र॑स्य वा स्तुव॒तः स॑हसो यहो म॒क्षूत॑मस्य रा॒तिषु॑ । अ॒वोदे॑वमु॒परि॑मर्त्यं कृधि॒ वसो॑ विवि॒दुषो॒ वच॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

viprasya vā stuvataḥ sahaso yaho makṣūtamasya rātiṣu | avodevam uparimartyaṁ kṛdhi vaso vividuṣo vacaḥ ||

पद पाठ

विप्र॑स्य । वा॒ । स्तु॒व॒तः । स॒ह॒सः॒ । य॒हो॒ इति॑ । म॒क्षुऽत॑मस्य । रा॒तिषु॑ । अ॒वःऽदे॑वम् । उ॒परि॑ऽमर्त्यम् । कृ॒धि॒ । वसो॒ इति॑ । वि॒वि॒दुषः॑ । वचः॑ ॥ ८.१९.१२

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:19» मन्त्र:12 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:31» मन्त्र:2 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:12


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शिव शंकर शर्मा

इससे प्रार्थना दिखाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (वा) और (सहसः+यहो) हे जगत् के उत्पादक ! हे (वसो) वासप्रद ईश (विप्रस्य) ज्ञानविज्ञानों से संसार को भरनेवाले (स्तुवतः) आपके गुणों का मान करनेवाले (रातिषु) और दान देने में (मक्षूतमस्य) अतिशीघ्रगामी ऐसे (विविदुषः) विशेषज्ञ पुरुष के (वचः) स्तोत्ररूप वचन को (अवोदेवम्) देवों के नीचे और (उपरिमर्त्यम्) मनुष्यों के ऊपर (कृधि) कीजिये ॥१२॥
भावार्थभाषाः - जो विद्वान् संसार के उपकार में सदा लगे रहते हैं, उनकी वाणी को परमात्मा सबके ऊपर स्थापित करता है। अतः हे मनुष्यों ! स्वार्थ को त्याग परमार्थ में लगो ॥१२॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सहसः, यहो) अतिबल से साक्षात्कार होने के कारण बल के पुत्रसमान परमात्मन् (वसो) सम्पूर्ण जगत् को आच्छादन करके वर्तमान आप (स्तुवतः, विप्रस्य, वा) स्तुतिकर्ता विद्वान् के लिये अथवा (मक्षूतमस्य, रातिषु) दानयज्ञों में शीघ्रता करनेवाले यजमान के लिये (अवोदेवम्) दिव्य सूर्यादि पदार्थों के नीचे और (उपरिमर्त्यम्) भूलोक के ऊपर के विषय को (विविदुषः) जाननेवाले विद्वान् के लिये (वचः, कृधि) ज्ञानजनक वचनों का निर्माण करें ॥१२॥
भावार्थभाषाः - परमात्मध्यानपरायण मनुष्य अपने चित्त को शुद्ध=प्रतिष्ठित बनाकर पृथिवी से अन्तरिक्षपर्यन्त पदार्थों के ज्ञान में अथवा सदैव समृद्धि को प्राप्त करके विद्वानों के कर्म की सहायता में समर्थ होता है अर्थात् परमात्मदेव अपने उपासक तथा यज्ञों में दानदाता यजमान के लिये भूलोक तथा अन्तरिक्षलोक की विद्याओं का ज्ञाता बनाकर ऐश्वर्य्यसम्पन्न करता है ॥१२॥
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शिव शंकर शर्मा

प्रार्थनामनया दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः - वा=अपि च। सहसः=जगतः। यहो=उत्पादक। हे वसो=वासप्रद परमदेव ! विप्रस्य=विशेषेण ज्ञानविज्ञानप्रपूरकस्य। पुनः। स्तुवतः=तव गुणगानं कुर्वतः। पुनः। रातिषु=विद्यादिदानेषु। मक्षूतमस्य=शीघ्रतमस्य। ईदृशस्य। त्रिविदुषः=विशेषज्ञस्य पण्डितस्य। वचः=स्तुतिरूपं वचनम्। अवोदेवम्=देवानां परमविदुषामव=अधस्तात्। उपरिमर्त्यम्=मर्त्यानामुपरि। कृधि=कुरु ॥१२॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सहसः, यहो) हे महाबलेन साक्षात्कार्यत्वात्तस्य पुत्र इव परमात्मन् ! (वसो) सर्वं जगदाच्छाद्य वर्तमान (स्तुवतः, विप्रस्य, वा) स्तुतिं कुर्वतो मेधाविनः अथवा (मक्षूतमस्य, रातिषु) दानयज्ञेषु शीघ्रकारिणः (अवोदेवम्) दिव्यपदार्थानामवस्तात् (उपरिमर्त्यम्) भूलोकादुपरि (विविदुषः) विदुषः (वचः, कृधि) ज्ञापकवचनं कुरु ॥१२॥