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पृदा॑कुसानुर्यज॒तो ग॒वेष॑ण॒ एक॒: सन्न॒भि भूय॑सः । भूर्णि॒मश्वं॑ नयत्तु॒जा पु॒रो गृ॒भेन्द्रं॒ सोम॑स्य पी॒तये॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pṛdākusānur yajato gaveṣaṇa ekaḥ sann abhi bhūyasaḥ | bhūrṇim aśvaṁ nayat tujā puro gṛbhendraṁ somasya pītaye ||

पद पाठ

पृदा॑कुऽसानुः । य॒ज॒तः । गो॒ऽएष॑णः । एकः॑ । सन् । अ॒भि । भूय॑सः । भूर्णिम् । अश्व॑म् । न॒य॒त् । तु॒जा । पु॒रः । गृ॒भा । इन्द्र॑म् । सोम॑स्य । पी॒तये॑ ॥ ८.१७.१५

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:17» मन्त्र:15 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:24» मन्त्र:5 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:15


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शिव शंकर शर्मा

उसकी स्तुति दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - जो इन्द्र (पृदाकुसानुः) मनोरथों को पूर्ण करनेवाला और परमदाता है, जो (यजतः) परम यजनीय=पूजनीय है। जो (गवेषणः) गो आदि पशुओं को देनेवाला है और जो (एकः सन्) अकेला ही (भूयसः) बहुत विघ्नों का (अभि) पराभव करनेवाला है। मनुष्यगण (इन्द्रम्) उस इन्द्र को (सोमस्य+पीतये) अपनी-२ आत्मा की रक्षा के लिये (तुजा) शीघ्रगामी (गृभा) ग्रहण योग्य स्तोत्र से (पुरः) अपने-२ आगे (नयत्) लावे। जो इन्द्र (भूर्णिम्) सर्व का भरण-पोषणकर्ता और (अश्वम्) सर्वत्र व्याप्त है ॥१५॥
भावार्थभाषाः - बुद्धिमान् जन केवल उसी की उपासना किया करें, क्योंकि इस जगत् का स्वामी वही है। वही सबमें व्याप्त और चेतन है ॥१५॥
टिप्पणी: यह अष्टम मण्डल का सत्रहवाँ सूक्त और चौबीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (पृदाकुसानुः) सर्प के समान उच्च शिरवाले (यजतः) यष्टव्य (गवेषणः) गव्यपदार्थ अथवा पृथ्वी की कामनावाले आप (एकः, सन्) एक ही (भूयसः, अभि) बहुतों को अभिभूत करते हैं उपासकजन (भूर्णिम्) सबका भरण करनेवाले (अश्वम्) स्वप्रताप को फैलानेवाले (इन्द्रम्) ऐसे योद्धा को (सोमस्य, पीतये) सोमपान के निमित्त (तुजा) शीघ्रता करानेवाले (गृभा) हृदयग्राही वाक्यों से (पुरः, नयत्) अपने अभिमुख ले आएँ ॥१५॥
भावार्थभाषाः - हे परमात्मन् ! उच्च भावोंवाले, यष्टव्य=परमात्म-उपासन में प्रवृत्त रहनेवाले, गो आदि धन तथा पृथिवी की कामनावाले, एक ही अनेकों को वशीभूत करनेवाले, उपासकजन तथा श्रेष्ठ पुरुषों का भरण-पोषण करनेवाले, अपने यश को संसार में विस्तृत करनेवाले योद्धा को नम्र वाक्यों द्वारा अपने अभिमुख लावें अर्थात् उसकी सब प्रकार से रक्षा करें, ताकि वह अपनी अभीष्ट सिद्धि में सफलीभूत हो ॥१५॥ यह सत्रहवाँ सूक्त और चौबीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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शिव शंकर शर्मा

तस्य स्तुतिं दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः - य इन्द्रः पृदाकुसानुः=पृदाकुः=पूरयिता। सानुः=परमदाता च वर्तते। पुनः। यजतः=यजनीयः। पुनः। गवेषणः=गवादीनां पशूनां एषणः=एषयिता=प्रापयिता। पुनः। यः। एकः सन्। भूयसो बहून् सर्वान् विघ्नान्। अभि=अभिभवति। मनुष्यः। तमिन्द्रम्। सोमस्य पीतये। तुजा=क्षिप्रगामिना। गृभा=ग्रहणीयेन स्तोत्रेण। पुरः=स्वस्वाग्रे। नयत्=नयतु। कीदृशं भूर्णिम्। भरणकर्त्तारम्। पुनः। अश्वम्=सर्वत्र व्याप्तम् ॥१५॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (पृदाकुसानुः) सर्पवदुन्नतशिराः (यजतः) अतो यष्टव्यः (गवेषणः) गव्यस्य पृथिव्या वा कामयिता (एकः, सन्) एकाक्येव (भूयसः, अभि) बहून् अभिभवसि तादृशम् (भूर्णिम्) भर्तारम् (अश्वम्) अश्नुवानम् (इन्द्रम्) योद्धारम् (सोमस्य, पीतये) सोमपानाय (तुजा) क्षिप्रकारिणा (गृभा) हृदयग्राहिवाक्येन (पुरः, नयत्) स्वाभिमुखम् नयेदुपासकः ॥१५॥ इति सप्तदशं सूक्तं चतुर्विंशो वर्गश्च समाप्तः ॥