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तं सु॑ष्टु॒त्या वि॑वासे ज्येष्ठ॒राजं॒ भरे॑ कृ॒त्नुम् । म॒हो वा॒जिनं॑ स॒निभ्य॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

taṁ suṣṭutyā vivāse jyeṣṭharājam bhare kṛtnum | maho vājinaṁ sanibhyaḥ ||

पद पाठ

तम् । सु॒ऽस्तु॒त्या । वि॒वा॒से॒ । ज्ये॒ष्ठ॒ऽराज॑म् । भरे॑ । कृ॒त्नुम् । म॒हः । वा॒जिन॑म् । स॒निऽभ्यः॑ ॥ ८.१६.३

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:16» मन्त्र:3 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:20» मन्त्र:3 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:3


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शिव शंकर शर्मा

सकाम प्रार्थना का विधान करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (महः) अति महान् (वाजिनम्) विज्ञान के (सनिभ्यः) लाभों के लिये (भरे१+कृत्नुम्) संग्राम में अथवा संसार में प्रतिक्षण कार्य्यकर्त्ता और (ज्येष्ठराजम्) सूर्य्य, चन्द्र, अग्नि, पृथिवी आदि ज्येष्ठ पदार्थों में विराजमान (तम्) उस इन्द्र को (सुष्टुत्या) शोभन स्तुति से मैं उपासक (विवासे) सेवता हूँ ॥३॥
भावार्थभाषाः - इन सूर्य्य चन्द्र पृथिवी आदि पदार्थों में से सदा विज्ञान का लाभ करे। इनके अध्ययन से ही मनुष्य धनवान् होते हैं ॥३॥
टिप्पणी: १−भर संग्राम का भी नाम है, ज्ञान विज्ञान की तथा अर्थ की प्राप्ति के लिये जिसको संग्राम करना पड़ता है, वही मनुष्य यथार्थ में मनुष्य होता है और वही मनुष्य वास्तव में अपना और अन्यान्य जीवों का भरण-पोषण करता है, अतः संग्राम का नाम भर रक्खा है ॥३॥
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आर्यमुनि

अब संग्राम के आरम्भ में क्षात्रबलप्रधान योद्धाओं को परमात्मा की उपासना करना कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (ज्येष्ठराजम्) सबके अधिक=बड़े राजा (महः, कृत्नुम्) महान् कार्यों के करनेवाले (वाजिनम्) प्रशस्त बलवाले (तम्) उस परमात्मा को (भरे) संग्राम में (सनिभ्यः) बलप्रदान के लिये (सुष्टुत्या) सुन्दर स्तुतियों द्वारा (आविवासे) आसेवन करता हूँ ॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र का भाव यह है कि संग्राम प्राप्त होने पर बल, बुद्धि तथा शत्रु के पराजयार्थ योद्धा लोग उस सर्वोपरि महाराजा परमात्मा से प्रार्थना करते हैं, जो महान् कार्यों को पूर्ण करनेवाला, महान् बलसम्पन्न और जो संग्राम में विजय का देनेवाला है, अतएव मनुष्यमात्र को उसकी स्तुति, प्रार्थना तथा उपासना करते हुए उन्नत होने का प्रयत्न करना चाहिये ॥३॥
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शिव शंकर शर्मा

सकामप्रार्थनां विधत्ते।

पदार्थान्वयभाषाः - महः=महान्तम्। वाजिनम्=विज्ञानम्। महतो वाजिन इत्यर्थः। अत्र षष्ठ्यर्थे द्वितीया। सनिभ्यः=लाभेभ्यः। भरे=संग्रामे संसारे वा। बिभर्त्ति। जीवान् पुष्णातीति भरः=संसारः। कृत्नुम्=कर्त्तारं व्यवसायिनम्। क्षणमपि कार्य्यं विना यो न तिष्ठति, स कृत्नुः कर्त्ता। पुनः। ज्येष्ठराजम्=ज्येष्ठेषु दिव्यपदार्थेषु यः सम्यग् राजते शोभते स ज्येष्ठराट्। तम्। रवौ, अवनौ इत्येवंविधेषु पदार्थेषु यस्य सत्तास्ति। तमिन्द्रम्। अहमुपासकः। सुष्टुत्या=शोभनया स्तुत्या। विवासे=परिचरामि=सेवे ॥३॥
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आर्यमुनि

अथ संग्रामारम्भे योद्धारं प्रति परमात्मोपासनोपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (ज्येष्ठराजम्) सर्वेभ्यो ज्येष्ठं राजानम् (महः, कृत्नुम्) महतः कर्तारम् (वाजिनम्) बलवन्तम् (तम्) तं परमात्मानम् (भरे) संग्रामे (सनिभ्यः) बलप्रदानाय (सुष्टुत्या) सुखदस्तुत्या (आविवासे) आसेवे ॥३॥