यस्मि॑न्नु॒क्थानि॒ रण्य॑न्ति॒ विश्वा॑नि च श्रव॒स्या॑ । अ॒पामवो॒ न स॑मु॒द्रे ॥
अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
yasminn ukthāni raṇyanti viśvāni ca śravasyā | apām avo na samudre ||
पद पाठ
यस्मि॑न् । उ॒क्थानि॑ । रण्य॑न्ति । विश्वा॑नि । च॒ । श्र॒व॒स्या॑ । अ॒पाम् । अवः॑ । न । स॒मु॒द्रे ॥ ८.१६.२
ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:16» मन्त्र:2
| अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:20» मन्त्र:2
| मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:2
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शिव शंकर शर्मा
इन्द्र की महिमा दिखलाते हैं।
पदार्थान्वयभाषाः - (न) यथा=जैसे (समुद्रे) समुद्र में (अपाम्) जल का (अवः) तरङ्गसमूह शोभित होता है, वैसे ही (यस्मिन्) जिस परमदेव में (विश्वानि) समस्त (च) और (श्रवस्या) श्रवणीय=श्रवणयोग्य (उक्थानि) प्राणियों की विविध भाषाएँ (रण्यन्ति) शोभित होती हैं। अर्थात् जिस परमात्मा में समस्त भाषाएँ स्थित हैं, उसको किसी भाषा द्वारा स्तुति कीजिये, वह उस-२ भाषा को और भाव को समझ जायगा। अतः निःसन्देह होकर उसकी उपासना कीजिये ॥२॥
भावार्थभाषाः - सर्वव्यापी सर्वान्तर्यामी परमात्मा की जो स्तुति प्रार्थना की जाती है, वह समुद्र की जलतरङ्गवत् शोभित होती है ॥२॥
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आर्यमुनि
पदार्थान्वयभाषाः - (यस्मिन्) जिस परमात्मा में (उक्थानि) किये गए स्तोत्र (विश्वानि, श्रवस्या, च) और सम्पूर्ण कीर्त्तिकर पदार्थ (अपाम्, अवः) जिस प्रकार जल की धाराएँ (समुद्रे, न) समुद्र में, उसी प्रकार (रण्यन्ति) शोभा पाते हैं ॥२॥
भावार्थभाषाः - जिस प्रकार अगाध जल का प्रवाह समुद्र को सुशोभित कर रहा है, इसी प्रकार परमात्मरचित वेदों के स्तोत्र=स्तुतिप्रद वेदवाणियें और नानाविध पदार्थ सम्पूर्ण लोक-लोकान्तरों को देदीप्यमान कर रहे हैं, जो आपकी महिमा को दर्शाते हुए आपके महत्त्व को बढ़ाते हैं, जिससे आपका गौरव सब पर भले प्रकार प्रकट हो रहा है ॥२॥
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शिव शंकर शर्मा
इन्द्रमहिमानं प्रदर्शयति।
पदार्थान्वयभाषाः - यस्मिन्निन्द्रवाच्ये परमात्मनि। विश्वानि=सर्वाणि। च पुनः। श्रवस्या−श्रवस्यानि=श्रवणीयानि। उक्थानि=उक्तानि वचनानि= विविधभाषाः। रण्यन्ति=शोभन्ते रमन्ते। सर्वेषां प्राणिनां सर्वा भाषा यस्मिन् स्थिताः शोभन्ते। हे मनुष्याः कयाचिदपि भाषया तं स्तुत स तां तां भाषां भावञ्च वेत्ति। अत्र दृष्टान्तः। न=यथा। समुद्रे। अपाम्=जलस्य। अवस्तरङ्गजालं रमते। तद्वत्। अवति गच्छतीत्यवस्तरङ्गजालम् ॥२॥
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आर्यमुनि
पदार्थान्वयभाषाः - (यस्मिन्) यत्र परमात्मनि (उक्थानि) स्तोत्राणि (विश्वानि, श्रवस्या, च) सर्वाणि च यशसे हितानि वस्तूनि (अपाम्, अवः) जलधाराः (समुद्रे, न) समुद्र इव (रण्यन्ति) रमन्ते ॥२॥